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कथा और कविता
समधन जी, प्यार से दिया गया कोई भी उपहार छोटा या बड़ा नहीं होता…

सौम्या को जैसे ही पता चला कि उसके मम्मी-पापा आये हैं। वो दौड़कर उनके पास आयी। अपने पापा को सामने देख वो उनके गले लग गयी।

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वो ढलती गई तुम्हारे अनुसार लेकिन तुम…

"शरीर देखा है अपना?" तुमसे इतना सुना कि उसने बिलकुल आराम करना छोड़ दिया! "फैलती जा रही हो!" तुमसे इतना सुना कि उसने खाना छोड़ दिया।

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मेरे हिस्से का इतवार कहां है?

बेफिक्री वाले बचपन कहां है, मां के हाथों की मालिश कराएँ, रूखे पकते बालों का इतिहास गवाह है, बताओ तो हमारे हिस्से का इतवार कहां है?

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एक अनकही चिट्ठी माँ की अपनी बेटी के नाम…

बेटी अब मां सी हो गई है, जहान का उसके दायरा बढ़ गया है, जिम्मेदारियों में उसकी मां-पापा भी अब शामिल हो गए हैं, बेटी अब मां-सी हो गई है।

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मंदिर न कभी बिकते हैं, ना कभी बेचे जाते हैं…

दोस्तों, एक बेटी के मन में अपने घर से जुड़ी भावनाओं की मची उथल-पुथल पे रचे हुए इस ताने-बाने पर आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित करती हैं मीनू झा!

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शादी है, कपड़े नहीं जिसे रोज़ बदला जाए…

एक बार प्रेम-विवाह और फिर तलाक के बाद हमारी छिछालेदरी करवा के उसका मन नहीं भरा जो अब फिर एक नया राग लेकर बैठ गई है।

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