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मंदिर न कभी बिकते हैं, ना कभी बेचे जाते हैं…

दोस्तों, एक बेटी के मन में अपने घर से जुड़ी भावनाओं की मची उथल-पुथल पे रचे हुए इस ताने-बाने पर आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित करती हैं मीनू झा!

दोस्तों, एक बेटी के मन में अपने घर से जुड़ी भावनाओं की मची उथल-पुथल पे रचे हुए इस ताने-बाने पर आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित करती हैं मीनू झा!

“ये सिलसिला रोज का होने लगा है विपुल। हर दूसरे दिन उस घर का सपना। कभी मां-बाबूजी को वहां देखना, तो कभी स्कूल का प्रांगण, कभी बचपन की सहेलियों के संग के वो खेल, वो खट्टे-मीठे पल, कभी आसपास के जाने पहचाने चेहरे, पुराने लोग! बस इन्हीं सपनों में विचरती रहती हूं रात भर। सपने तो पहले भी आते थे, पर आजकल तो सिलसिला बन गया है। जगह वही पर रोज पात्र बदल जाते हैं। और ये कहानी पिछले एक महीने से चल रही है जबसे हम तीनों भाई-बहनों ने घर बेचने की बात सोची है…”

सुबह की चाय की कप खत्म हो गई थी, पर प्रिया बोलती-बोलती बार-बार उसे मुंह से लगाए जा रही थी मानों वो यहां हो ही नहीं।

“प्रिया रिलैक्स! पहले चाय के कप को नीचे रखो, फिर बात करते हैं”, विपुल ने उससे कप लेकर ट्रे में रख दिया।

“हां अब बोलो। तुम क्या चाहती हो? घर बिक जाए, उससे पहले अगर वहां जा कर कुछ दिन रहने की इच्छा है, पुराने समय को याद करने का मन है तो चलो हो आते हैं। वैसे भी मेरी कुछ छुट्टियां बची हुई हैं। कहो तो अप्लाई कर दूं आज के आज?”

“पर विपुल, उन यादों से बचने के लिए ही तो मैं मां के जाने के बाद पिछले तीन साल से वहां गई ही नहीं। मन ही नहीं करता। बिना मां और बाबूजी के उस घर में बचा ही क्या है?”

“यादें हैं ना प्रिया! उनके साथ बिताए सुखद पलों की, दुख में कटे क्षणों की, हंसी ठहाको के गुंज की, ईंट ईंट के पीछे लगी मेहनत और खून-पसीने की कमाई की। उनको याद करके दो-चार दिन में आ जाएंगे। मैं हूं ना तुम्हारे साथ!”

विपुल ने ये कहकर प्रिया की डबडबाई आंखों को अपने हाथों से पोंछ दिया।

वहां पहुंच कर प्रिया ने विपुल से कहा, “घर तो बहुत दिनों से बंद है। होटल का एक कमरा ले लेते हैं। शाम तक घर साफ कर लेंगे फिर आ जाएंगे?”

पर विपुल ने कहा, “नहीं सीधे घर ही जाएंगे, जो होगा मिल-जुलकर कर लेंगे।”

दिन के लगभग ग्यारह बजे घर पहुंचे वो लोग। मेन गेट खोलते ही नीम की पत्तियां ने जो गेट तक पहुंच गई थीं, प्रिया का चेहरा सहलाया तो एकबारगी प्रिया डर गई और फिर मुस्कुरा दी…

तीन महीने पहले अर्जुन आया था, तो सब साफ़ सुथरा करा गया था। इतने दिनों बाद भी बजाय सब गंदा और अस्त-व्यस्त दिखने के बड़ा खिला-खिला और अच्छा लग रहा था। शायद पिछले दिनों हुई जोरदार बारिश की वजह से।

करी पत्ते का पेड़ और बड़ा होकर लहलहा रहा था। याद है उसे सांभर बहुत पसंद था, तो करी पत्ते कभी-कभी ही गांव वाली मंडी में मिलते, तो मां शहर की नर्सरी से ये पेड़ खरीद कर लाई थी। वो उस दिन कितनी खुश हुई थी!

और हरसिंगार का वो पेड़ जस का तस है, फूलों से लदा हुआ। इसके इर्द-गिर्द तीनों भाई-बहन हाथ पकड़ गोला बना गोल गोल घुमते, जिसके ऊपर फूल गिर जाता वो जीत जाता। अजब खेल थे उस अनूठे बचपन के।

कोने में ईंटों से घेर कर तीनों भाई बहनों ने खेलने के लिए जो बैठकी बनाई थी, बेलों ने ईंटों को ढंक कर उसे पत्तों की झोपड़ी सा बना दिया है। इतने सारे फंक्शन हुए टेंट शामियाने लगे, पर बाबूजी ने उसे किसी को हटाने नहीं दिया कहकर कि मेरे बच्चों की बैठकी है। जब उनकी याद आती है तो यहां आकर खड़ा हो जाता हूं और वो मानो दौड़ लगाकर आते हैं, “बाबूजी को मुझे पहले छूना है कहकर, जैसा बचपन में करते थे।”

विपुल ने तब तक मेन दरवाजा खोल दिया था। तभी अचानक सावित्री दीदी जाने कहां से आ गईं!लड़ लेती, झगड़ लेती पर कभी दूसरे के घर का काम नहीं पकड़ा, जब तक बाबूजी के बाद वो तीनों मां को लेकर वहां से चले नहीं गए।

प्रिया दीदी! कब आए? फोन भी नहीं किए!” प्रिया का मुंह छुकर वो बोली। तब तक विपुल को देख झट माथे पर आंचल रख लिया, तो मन भारी होते हुए भी प्रिया हंस पड़ी।

“अभी आए हैं दीदी…”

कहना भी ना पड़ा, झट मोटर के स्विच को आन कर,अंदर गई, दो कुर्सियां नीम के पेड़ के नीचे प्रिया और विपुल के लिए लगाकर, जाने किस कोने से झाडू ढ़ूंढ लाई और जुट गई साफ-सफाई में। तब तक उसे ढ़ूंढती आई अपनी बेटी को प्रिया के लाख मना करने पर भी घर से चाय बनाकर लाने बोल दिया।

चाय पीकर विपुल जरूरी सामान लाने बाहर निकले ही थे कि चारदीवारी के उस पार से बगल वाली चाची झांकती दिखीं। प्रिया को देखते खुश हो उठी और अपने आप को रोक ना पाई और तुरंत आ पहुंची।

भावनाओं के आदान प्रदान के बाद चाची पूछने लगी, “घर का क्या सोचा है बेटा? अर्जुन बेटा शायद शहर के किसी ब्रोकर को बोल गया है। आए दिन लोग आते हैं पूछने और जानकारी लेने हमसे। क्या सच में…??”

“हां चाची, अर्जुन विदेश जाने की सोच रहा है। पूजा और मैं अपने अपने परिवार और बच्चों में इतने व्यस्त हैं और यहां से इतनी दूर रहते हैं कि इस घर की देखभाल करने मे असमर्थ हैं। सुदूर गांव है किराया तो चढ़ेगा भी नहीं, तो बंद घर ऐसे पड़ा रहे तो क्या फायदा? भले ही उस मिलने वाली राशि की जरूरत हममें से किसी को नहीं पर कम से कम हमेशा भरे पूरे रहने वाले इस घर में नए लोगों की वजह से चहल पहल भी तो बनी रहेगी।”

“पर बेटा, भाईजी और भाभी जी ने बड़े मन से ये घर बनाया था। खासकर ऊपर का हिस्सा…कहो पूरा घर ही!”

“अफसोस तो हमें बहुत होगा चाची, पर क्या कर सकते हैं? कोई उपाय भी तो नहीं!”

“एक बात बोलूं बेटा? मदन(चाची का बड़ा बेटा) कुछ नहीं करता। दिल्ली में रहकर तब तक सरकारी सेवाओं की तैयारियां करता रहा जब तक उसकी उम्र रही। पर किस्मत ने साथ नहीं दिया। अब कोई प्राइवेट नौकरी भी नहीं करना चाहता। कहता है मैं भले कुछ ना बन पाया, पर जब तक दस बच्चों के सरकारी नौकरी के सपने पूरे नहीं कर देता, तब तक चैन से नहीं जी पाऊंगा।

अब हमारे पास तो ना उतना बड़ा घर है ना उतना पैसा कि उसके सपने को पूरा करने में सहयोग कर पाएं। आवासीय संस्थान बनाने के लिए शहर में किराया देना हमारे लिए कहां संभव है और भी तो बहुत सारे खर्चे होंगे सब करने में। जानती हूं जितना इस घर का किराया होना चाहिए देने में हम सक्षम तो नहीं, पर जो बन पड़ेगा देंगे और आगे बढ़ाते भी जाएंगे।

पिछले एक महीने से मदन अर्जुन का नंबर उस ब्रोकर से मांग रहा था। पर वो देना ही नहीं चाहता। मैं रोज परेशान होकर भगवान से प्रार्थना करती और देखो, आज पूजा करके बाहर निकली तो तुम मिल गईं! अगर तुम ये घर मदन को…”

“अरे, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है चाची जी? और हां किराये की आप फ़िक्र मत करिये। अरे छोड़ नहीं रहे…जब मदनजी की मेहनत चल निकलेगी तो आगे पीछे-जोड़ कर लें लेंगे”, जाने कब से पीछे आ खड़े हुए विपुल, जो सारी बात सुन रहे थे, बोले।

चाची विपुल की आवाज सुनकर खड़ी हो गईं।

“एक शिक्षक का घर उसके बाद एक विद्या का मंदिर बन जाए इससे उत्तम और क्या होगा! मैं तो कहूंगा किसी भी तरह की और भी जरूरत हो हमारी इस नेक काम के लिए तो हम तैयार हैं।”

चाची खुशी से रो पड़ीं। प्रिया का भावातिरेक में हाथ चूमा और तुरंत मदन और घरवालों को खुशखबरी देने चल पड़ीं।

“प्रिया दी, आ जाइए घर साफ हो गया”, सावित्री पसीने से तर-बतर बाहर निकली।

सच में सावित्री ने घर चमका दिया था।

प्रिया अंदर घुसी तो उसे लगा कोने वाली तख्त पर बाबूजी बैठे हैं और सोफे पर पैर ऊपर करके बैठी है मां, अपनी-अपनी पसंदीदा जगह पर और दोनों मुस्करा रहे हैं।

“इसीलिए बुला रहे थे शायद आप दोंनो मुझे यहां? ये एहसास दिलाने कि आप यहां हैं, कहीं नहीं गए। जो गया वो तो नश्वर शरीर था। अब ना घर बिकेगा, ना बंद पड़ा रहेगा। पहले की तरह चहल-पहल होगी। लोग आएंगे-जाएंगे और आप लोग यहां बैठकर इन सबका आनंद उठाएंगे।

आप दोनों मंदिर कहते थे ना अपने इस घर को? मंदिर भी बिकते हैं क्या? शायद हमें यही समझाने की कड़ी थी रोज रोज के उन सपनों का सिलसिला। मंदिर तो हमेशा मंदिर ही रहेगा है ना! वाह मां-बाबूजी वाह!” बुदबुदा उठी प्रिया।

दोस्तों, एक बेटी के मन में अपने घर से जुड़ी भावनाओं की मची उथल-पुथल पे रचे हुए इस ताने-बाने पर आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित हैं!

इमेज सोर्स: Still from Happy Diwali – Badlaav Humse Hai/ AU Small Finance Bank ad/YouTube

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