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सोचने और बोलने वाली स्त्री इस समाज को नहीं भाती…

कुल मिलाकर आज के संदर्भ में सभी अपराधों और समाजिक ढांचे मे होने वाली हलचल की वजह सिर्फ एक लगती है - सोचने व बोलने वाली स्त्री

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मंदिर की लक्ष्मी और एक जीती-जागती घर की लक्ष्मी…

हम अपने घर की लक्ष्मी को सम्मान देकर ही अपने मंदिर की लक्ष्मी को रूठने से रोक सकेंगे। सोच क्या रहे हैं आप, हर रोज़ 'लक्ष्मी पूजन' मनाएं!

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हम किसको क्या समझायेंगे, सुनो द्रौपदी शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे…

'सुनो द्रौपदी शस्त्र उठालो' क्यूँकि लगता है अब लड़कियों को अपनी सुरक्षा के लिए न सिर्फ संस्कार बल्कि हथियार भी साथ लेकर चलने की सीख देनी चाहिए।

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पीड़ पराई जाने ना : गाँधी जयंती, आर्टिकल १५ और हाथरस

याद है जब लड़कियों के कलपते बापों को धमका कर झूठ बोलने को कहा गया था, 'बोलो कि तुम्हारी लड़कियों के 'गलत' सम्बन्ध थे, बोलो।' वो कांपते बोल गए।

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हर महीने है बहता मेरे खून का वो कतरा, जिससे तुम्हें जन्म मिला…

वो एक खून का कतरा, उसी एक कतरे से दुनिया में अस्तित्व तुम्हारा होता है मानव, फिर भी तुमने स्त्री की उस पीड़ा को एक हौआ बना कर रख दिया है?

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आज भी नारी की पहचान सिर्फ अपने नाम से क्यों नहीं हो सकती?

क्या कभी किसी ने, किसी पुरुष से आज तक ये पूछा है, किसका बेटा है वो, किसका पति है? नहीं ना? तो नारी की पहचान पर इतना शोर क्यों?

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