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Deepika Mishra

I am a mom of two lovely kids, Content creator and Poetry lover.

Voice of Deepika Mishra

क्या मेरे इन प्रश्नों का जवाब आप में से किसी के पास है?

मेरा सवाल एक ही है क्यों मुझे हर रीति रिवाज से बांधा जाता हैं और खासकर माँ बनने के बाद मेरी निज़ी जिंदगी पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया जाता है।

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क्या तुम्हारी हर गलती के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ?

हर गलती का हमेशा जिम्मेदार मुझे ही ठहराया जाता है, दूसरों के लिए छोटा, पर मेरे लिए मेरा आत्मसम्मान, शायद तब सबसे बड़ा हो जाता है।

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हम औरतें इतना क्यों सह जाती हैं…

आप क्या क्या कर सकते हो इसका जलवा तो एक बार दिखाना ही पड़ता है, आपका खुद पर किया विश्वास दूसरों के लिए भी मिसाल बन जाता है...

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लोग क्या कहेंगे के रोग को अपनी ज़िंदगी से बाहर फेंक दें…

हालांकि इन सब बातों का हम पर फ़र्क तो पड़ना नहीं चाहिए, पर पड़ता है, जबरदस्त पड़ता है। आदत जो पड़ गई है खुद की छवि को दूसरों के आईने से देखने की।

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जब मैं थक जाया करती हूँ तो खुद से कहती हूँ…

अगर लगे कि सब बराबर है, तो फिर तो कोई गम ही नहीं, पर गर लगे कि मामला गड़बड़ है तो रास्ता बदलने में भी देर नहीं लगाती हूँ।

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दो लोगों का काम भी कोई काम है क्या…

खुद तो यहाँ आराम से रहती है पति के साथ और सास-ससुर वहाँ गाँव में अकेले रह रहे हैं। यहाँ पर काम ही क्या है? थोड़ा सा काम और दिन भर आराम।

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हे कोरोना ये तूने क्या किया

कब होता है दिन, कब ढल जाती है शाम,अब इस बात की भी सुध बुध भी ना रही, हमेशा टिप टॉप रहने वाली मैं भी अब महीनों से पार्लर नहीं गई।

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कुछ सुकून के पल चाहती हूँ…

इस बड़ी सी दुनिया में, अपनी एक छोटी सी जगह चाहती हूं। जो दे दिल को सुकून और सपनों को दे उड़ान, वो ख़्वाब देखना चाहती हूं।

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कब तक समाज एक औरत को ‘औरत’ होने की परिभाषा सिखाता रहेगा?

हम औरतें क्यूँ हक दे देती है किसी और को खुद पे सवाल उठाने का। जब एक आदमी सम्पूर्ण हो सकता है अपनी खामियों के साथ तो एक औरत क्यूँ नहीं?

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ऐ मन! तू अच्छा करता है!

दूसरे आएंगे, तो मुमक़िन है! कि सिर्फ़ तेरी गलतियाँ ही बताएंगे! घाव पर मरहम लगाने की बात कहकर, जख्मों को ही कुरेद जाएंगे!

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क्या है ज़िंदगी…

ज़िंदगी का तानाबाना किसी की भी समझ से काफी दूर है, मगर इंसान फिर भी जूझता रहता है ज़िन्दगी के मायने को समझने क लिए। 

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कुछ तेरी, कुछ मेरी, चाहती हूँ वो दुनिया बराबरी वाली

जहाँ मैं जी सकूँ अपने हिस्से का जीवन और नाप सकूँ अपने हिस्से का आसमां, जहाँ सिर्फ़ मुझे न दी जाएं बेटी, बीवी, बहूँ और एक माँ की उपमा।

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सफलता की सीढ़ी पर सोच से आगे बढ़ते हैं, कद से नहीं … क्यों ठीक कहा ना?

उसने पहले ही सोच लिया था कि वह लोगों के तानों का जवाब अपने हुनर से देगी, अपने काम से देगी, उनसे लड़ कर नहीं और वह लगी रही। 

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क्यों ना आज से अपने बेटों को बेटियों की बराबरी करना सीखाएं? 

बेटे और बेटियों को आत्मनिर्भर बनाएं और सिखाएं काम काम होता है, क्या लड़की वाले काम, क्या लड़के वाले काम, अब समय बदल रहा है, सोच भी बदलनी चाहिए।

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मेरे बीमार पड़ते ही घरवालों पर मुसीबतों का पहाड़ क्यों टूट जाता है?

सबके लिए एक टाँग पर खड़े रहने वाली जब आज बीमार है, तो उसकी तबीयत ख़राब होने से ज़्यादा घर के लोग इस बात से परेशान हैं कि काम कौन करेगा?

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कुछ सवालों का जवाब ढूंढ़ना ही होगा

किसी की गलती करने पर उससे बड़ी गलती करना हमारी समझ तो नहीं है, क्या कर रहे हैं हम? क्यूँ डर रहे हैं हम? किससे छिप रहे हैं हम? 

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प्यार बेजुबां मगर इसकी ज़ुबानें अनेक!

दीपिका का मानना है कि प्यार एक अनुभूति है, एक एहसास है, शब्दों में बयां करना पड़ता नहीं इसे, गर बोलते आपके जज़्बात है।

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मंदिर में देवी और बाहर दरिंदों का शिकार? बंद करो, अब बहुत हो गया!

ज़रा सोचिये! क्यूँ अपनी आबरू खोने के बाद भी वो करती इंसाफ़ का इंतज़ार है? क्या गलती थी उसकी, जो वो चिता पर और खुली हवा में घूम रहे उसके गुनहगार हैं?

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सिर्फ दूसरों की ख़ुशी लिए जीते हुए, कभी अपने अपने लिए भी जीना सीखें…

एक नया आशियाँ अब उसने भी बनाया है, मंजिलों की राहों को छोड़ कर, यूँ ही चलते चलते अब इन राहों पर ज़िंदगी जीने के नए बहाने मिल गए हैं।

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पराया धन…दूसरे घर से आयी! कब तक रहेगी औरत तेरी यही कहानी?

क्यूँ वो दो दो घर होने के बावजूद किसी एक का भी अभिन्न हिस्सा नहीं है? क्यूँ उसे परिभाषित किया जाता है अलग अलग उपमाओं में?

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माँ है फरिश्ता, उसे सब पता चल जाता है

ऊपर भगवान और नीचे आपका कोई मोल नहीं है। कौन पिरो सकता है माँ की ममता को शब्दों में, मेरे लिए तो ये सबसे पवित्र और अनमोल है।

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