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बुआ सास ने कहा, "जब सास ही रस्म रिवाज नहीं निभाएगी, तो बहु क्या खाक रीति-रिवाजों को मानेगी? वो तो आज के जमाने की लड़की ठहरी।"
बुआ सास ने कहा, “जब सास ही रस्म रिवाज नहीं निभाएगी, तो बहु क्या खाक रीति-रिवाजों को मानेगी? वो तो आज के जमाने की लड़की ठहरी।”
मायके से विदा होकर मैं अपने ससुराल की चौखट पर खड़ी थी। मन मे एक डर और अनगिनत सवाल कि ना जाने सब लोग कैसे होंगे?
मुझे मायके में एक-एक चीज के लिए सलीके से सिखाया गया था या ये कहूँ कि तोते की तरह रटाया गया था कि ससुराल में एक बहु को कैसे रहना, उठाना, बैठना, बोलना चाहिए। मैं भी एक बहु के रूप में अपने जीवन की नयी पारी की शुरुआत करने के लिए पूरी तरह तैयार थी।
मेरे दिमाग में सास की इमेज पूरी तरह से टीवी सीरियल वाली सास मतलब ललिता पवार और कोकिला बेन के जैसे थी। मैंने अपनी मां को भी हमेशा मेरी दादी से डर के और दबी आवाज में ही बात करते देखा सुना था। मेरी माँ बिना मेरी दादी से इज्जात लिए कोई काम नही करती थी। मेरा मायका पूरी तरह रुढ़िवादी सोच का था, जहाँ बहु बेटियों के लिए बहुत सारे नियम कानून थे।
कार घर की गेट पर खड़ी थी और मैं लंबा घूँघट किये कार के अंदर बैठी थी। तभी तेज कदमों से भागती हुई, मेरी सासुमां आ रही थीं और उनके पीछे-पीछे लोटे का जल लिए मेरी बुआ-सास भागते हुए आ रही थीं।
तभी बुआ सास ने मेरी सासुमां सरला जी को डांटते हुए कहा, “खबरदार जो कार की गेट खोली तुमने, बिना धार दिए बहु को उतारा तो मुझसे बुरा कोई ना होगा आज, भाभी ये जान लेना।”
“अरे! जीजी गेट नहीं खोल रही मैं तो बहु का खिड़की से घूंघट ऊपर करने जा रही थी। बिचारी का दम घुट रहा होगा, ना जाने किसने बोल दिया इसको इतना लंबा घूँघट करने के लिए?” मेरी सासुमां ने इतनी भोली शक्ल बना कर ये बात बोली कि मुझे हँसी आ गयी।
और उन्होंने खिड़की के अंदर हाँथ डाल कर मेरा घूँघट ऊपर करते हुए कहा, “हाँ! अब अच्छा लग रहा है। बहु तुमने घूँघट क्यों किया? इतने लंबे घूँघट में तुम्हारा दम नहीं घुट रहा था? तुम साँस कैसे ले रही थीं? इतनी प्यारी सी गुड़िया जैसी सुन्दर मेरी बहु है, तुम्हें कोई जरूरत नहीं ये सब करने की।”
“अरे! जीजी आप लोटा दो इधर। मुझे यूँ घुर के मत देखो”, जल्दी से लोटे का जल अपने हाथ में लेकर फ़टाफ़ट से रस्म पूरी की लेकिन इन सब के बीच मे बुआ सास भुनभुनाती रहीं।
मुझे कार से उतार कर वो सीधा एक कमरे में लेकर गयीं जिसके बगल के कमरे में रसोई थी। मेहमानों से पूरा घर भरा हुआ था। इसी बीच मैंने नोटिस किया कि माँजी बार-बार अपना सिर पकड़ के बैठे जा रही थीं।
तब तक बुआ सास ने कहा, “अभी बहुत काम है भाभी। उठो, सिर दर्द के बहाने बाजी बंद करो।”
“देखो, जीजी बात साफ साफ है। मुझे सुबह सुबह चाय पीने की आदत है और अब मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है। मुझ से ये सब कुछ नहीं हो पायेगा।”
तभी बुआ सास ने कहा, “जब सास ही रस्म रिवाज नहीं निभाएगी, तो बहु क्या खाक रीति-रिवाजों को मानेगी? वो तो आज के जमाने की लड़की ठहरी।”
मैं सब कुछ चुपचाप देख सुन रही थी सब अपने अपने काम में व्यस्त थे। रसोई में कोई नहीं था। मैं उठी और जाकर मैंने एक कप चाय बनाकर बेड पर लेटी अपनी सासुमां को दिया।
चाय देखते वो तेजी से उठ के बैठ गयीं।
“अरे! बहु तुमने चाय क्यों बनाई?” और हाथ में चाय लेकर वो खुशी से रोने लगीं। फिर उठकर उन्होंने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया। तो मैं डर गयी। ये सोचकर कि इन्होंने आखिर दरवाजा क्यों बंद कर लिया?
चाय लेकर वो किचन की तरफ चली गयी और मैं मारे डर के चुपचाप बेड पर वापिस बैठ गयी। थोड़ी देर में उनके हाँथ में दो प्लेट में मैगी और दो कप चाय देखकर मैं चौंक गयी। मैगी की प्लेट देते हुए उन्होंने कहा, “चलो खाओ। मुझे पता है तुमने कल से कुछ नहीं खाया है। भूख लगी होगी। मुझे भी भूख लगी है, चलो खा लो वरना ठंडी हो जाएगी।”
अब मेरी आँखों मे आंसू थे। ये आंसू खुशी और संतोष के थे कि मेरी सासुमां सास नहीं सिर्फ माँ हैं, जो मेरे लिए किसी वरदान के कम नहीं था।
तभी खिड़की की तरफ से बुआ सास ने अपना माथा पीटते हुए कहा, “हाय राम! ये सास बहू दरवाजा बंद करके मैगी खा रही हैं और अभी पूरी रस्म होनी बाकी है।”
चम्मच से मैगी खाते-खाते माँजी ने कहा, “अब कोई रस्म ना होगी जीजी, अब बस। मेरे और बहू के साथ-साथ आप सब भी रात भर जगकर थक गए हैं। बस बहुत हो गया। अब आप सब भी आराम कीजिये और मुझे और बहु को भी आराम करने दीजिए।”
और मेरी शादी की सारी रस्म मैगी खा कर खत्म हो गयी।
मुझे अपना ससुराल अपने मायके से ज्यादा प्यारा है क्योंकि यहाँ मुझे मेरी पसंद के कपड़े पहनने से लेकर खाना खाने, घूमने फिरने हर चीज की पूरी छूट है।
मेरा अनुभव ये कहता है कि जरूरी नहीं कि हर मायका अच्छा ही होता है और ससुराल खराब। ससुराल भी अच्छी हो सकती है बस जरूरत है अच्छे सोच और विचार रखने की।
मूल चित्र : Photo by DreamLens Production from Pexels
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