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हिंदी टीवी सीरियल अपनी कहानी औरतों को आदर्श रूप में दिखाने से शुरू करते हैं लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है ये सीरियल कुछ और करते हैं।
हमारे समाज में औरतों को ले कर कई धारण बनी हुई है। एक औरत को कैसा व्यवहार करना चाहिये, खुद से पहले परिवार को रखना चाहिये। हर कोई औरत से उम्मीदें लगाता है कि वो एक अच्छी पत्नी, माँ, बहन और बेटी बने, लेकिन अगर औरत खुद के बारे में सोचे तो उसे खुदगर्ज बना दिया जाता है। औरतों की समाज में मदर इंडिया वाली इमेज बनाने के पीछे कहीं ना कहीं भारतीय टीवी सीरियल की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
भारतीय टीवी सीरियल में अधिकतर कहानियाँ औरतों को केंद्र में रख कर ही बनाई जाती रही हैं। कहने को तो महिला सशक्तिकरण पर बनाने वाले ये टीवी सीरियल अपनी कहानी की शुरुवात औरतों को आदर्श रूप में दिखाने से करते हैं लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है ये सीरियल महिला सशक्तिकरण से हट कर अपने पितृसत्तात्मक सोच की ओर बढ़ चलती है।
जब भी किसी सीरियल का प्रोमो टीवी पर आता है तो वो महिला सशक्तिकरण का नारा बुलंद करता दिखता है, महिला कलाकारों को पितृसत्तात्मक समाज से लड़ता दिखाया जाता है लेकिन वास्तव में ये सीरियल पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देते ही दिखते हैं। उदहारण स्वरुप किसी टीवी सीरियल में लड़की पढ़ी-लिखी हो कर भी नौकरी वो तब ही कर सकती है जब उसके ससुराल वाले इज़ाज़त दें।
क्या ये महिला सशक्तिकरण पर बनने वाले इन सीरियलों में पितृसत्तात्मक सोच की छवि नहीं? क्यूंकि इन टीवी सीरियलों द्वारा एक अच्छी आदर्श लड़की की छवि ऐसी ही बनाई जाती है जो कभी अपने ससुराल वालों की इच्छा के खिलाफ जा ही नहीं सकती। बगावत करने वाली लड़कियाँ इन टीवी सीरियलों की मुताबिक “आदर्श बहु” की छवि के साथ फिट नहीं बैठती।
टीवी सीरियल कई अलग अलग मुद्दों पर लिखा जाता रहा है जैसे किन्नर, बाल विवाह, विधवा विवाह आदि लेकिन हर बार लड़की को बेचारा और पुरषों पर निर्भर ही दिखाया जाता है। यहाँ कुछ समय पहले आने वाले एक सीरियल “दिया और बाती हम” का जिक्र करना चाहूंगी। एक पढ़ी-लिखी लड़की संध्या जो आईपीएस ऑफिसर बनना चाहती है, लेकिन अपने सास के तानों को सहती है, अपने सपनों को कुर्बान करती है क्यूंकि वो एक बहु होती है जो ससुराल वालों के खिलाफ नहीं जा सकती।
हाल ही में आयी सीरियल “नमक इश्क का” की टैग लाइन है, सोचने वाली बात है कौन करेगा नचनिया से शादी? कौन बनायेगे इसे अपने घर की बहु? लगभग हर सीरियल में शादी का मुद्दा ही आम होता है। आखिर क्यों हर सीरियल में पुरुषों की सहभागिता को प्रमुख माना जाता है? क्या ये पितृसत्तात्मक सोच नहीं कि एक औरत पुरुष के साथ के बिना कुछ नहीं कर सकती?
अधिकतर सीरियल में आदर्श औरतों को साड़ी पहने सर पे पल्ला लिये अपने परिवार की रात दिन सेवा करते ही दिखाया जाता है। आत्मनिर्भर और मॉडर्न कपड़े पहनने वाली औरतें इन सीरियलों में वैम्प की भूमिका ही करती नज़र आती है। इन सीरियलों में औरतों को ही औरतों के विरुद्ध खड़ा कर दिया जाता है। पितृसत्तात्मक सोच से प्रेरित ये सीरियल हर बार सास बहु के मुद्दे पर आते हैं। मेरे विचार से तो इस प्रकार की सोच से प्रेरित सीरियल समाज में रूढ़िवादी विचारों को बढ़ावा ही देते हैं।
इसी पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा होता है की हर सीरियल में एक आदर्श बहु रसोई में ही खड़ी नज़र आती है। क्या आपने किसी सीरियल में किसी पुरुष को रसोई में अपनी पत्नी के लिये खाना बनाते देखा है? हर बार बहु से ही उम्मीद की जाती है की वो सब की अपेक्षा पर खरी उतरे और इन सीरियल में बार बार एक डायलॉग आपको सुनने को मिल जायेंगे, “मैं अच्छी बहु बन के रहूंगी।” इसका तो यही अर्थ है कि बहु को ससुराल और पति के अनुसार ही खुद को ढालना होगा, ऐसे में महिला सशक्तिकरण का मुद्दा इन सीरियलों में मुझे तो कहीं नज़र ही नहीं आता।
नारीवाद का अर्थ होता है समानता दोनों ही वर्गों के बीच हो, चाहे वो पुरुष हो या स्त्री। लेकिन इन पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाते सीरियल में मुझे ये समानता कहीं नहीं दिखती। मुझे तो हर बार औरतें ही घर के काम के साथ सारे समझौते करती नज़र आती हैं।
कभी किसी सीरियल में आपने किसी पुरुष को ऑफिस से घर आ कर खाना बनाते देखा है? क्या किसी पुरुष को सुबह जल्दी उठ घर के काम करते देखा है? हर बार इन सीरियलों में औरतों को ही ऐसा करते देखा जाता है और पुरुषों को आराम करते। पितृसत्तात्मक सोच से ये सीरियल कुछ इस तरह बंधे होते है की इनके द्वारा औरतों को ही पुरूषों की उम्मीदों से बंधा दिखाया जाता है।
पितृसत्तात्मक सोच से प्रेरित इन सीरियलों में हमेशा औरतों को संस्कारों से बँधी, सिर झुका बड़ों का फैसला मानने वाली ही, चाहे शादी में कितनी भी परेशानी आये, पति की सेवा करने वाली ही दिखाते हैं। “सात फेरे ” सीरियल तो आपको याद ही होगा इसकी मुख्य कलाकार साँवली होती है और सबके लिये यही मुद्दा होता है की इससे शादी करेगा कौन?
क्या ऐसी सोच को बढ़ावा इन सीरियलों के द्वारा ज़रुरी है? पहले से ही हमारे समाज में कई रूढ़िवादी विचारधारा फैली हैं, ऐसे में इस प्रकार के सीरियल इन रूढ़िवादी सोच को और भी हवा देने का काम करते हैं। हमारे समाज में पितृसत्तात्मक सोच सदियों से चली आ रही है ऐसे में इस तरह के सीरियल इस विचारधारा को बदलने के बजाय इसे बढ़ावा देने का काम करते हैं।
आम लोगो के मन में अच्छी, संस्कारी महिला की छवि ‘साड़ी पहने रसोई में काम करती महिला’ की बना देते है और आत्मनिर्भर को वैम्प बना देते हैं। हर सीरियल में सिर्फ सास-बहु और देवरानी-जेठानी को आपस में बदला लेते दिखाते हैं। ऐसे में महिला सशक्तिकरण मुझे तो कहीं नज़र नहीं आता जिनका दावा ये सीरियल बनाने वाले करते हैं।
अब समय आ गया है की हम खुद सोचें कि क्या हमारे समाज को ऐसे हिंदी टीवी सीरियल की जरुरत है? क्या ये सीरियल कोई सीख या किसी प्रकार हमें प्रेरित करते हैं? अब समय आ गया है की ऐसे शो बनें जहाँ असल मुद्दों को दिखाया जाये। टीवी एक बड़ा माध्यम है लोगों तक पहुंचने का, ऐसे में टीवी की जिम्मेदारी भी समाज के प्रति बड़ी है।
अब हमें ऐसे हिंदी टीवी सीरियल की जरुरत नहीं जहां पति अपने पत्नी को दूसरी औरत के लिये छोड़ दे और ना ही ऐसे सीरियल की जरुरत है जहाँ एक औरत सिर्फ बेचारी बहु बन जिम्मेदारी निभाती दिखती है। सीरियल तो ऐसे कंटेंट पर बनने चाहिये जो रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक सोच से हट कर हों। ऐसे सीरियल का निर्माण हो जो महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा दें। मेरे विचार से तो एंटरटेनमेंट के नाम पर महिला वर्ग का शोषण नहीं बल्कि महिला वर्ग को प्रेरित करना इन सीरियलों द्वारा दिखाया जाना चाहिये।
मूल चित्र (for representaional purpose only) : Screenshot of Hindi Serial Kumkum Bhagya
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