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शादी के बाद मेरा मासिक धर्म ही मेरा सबसे बड़ा जुर्म बन गया था…

दर्द की सीमा या पैरामीटर होता तो कितना अच्छा होता, काश मैं उन सबको दर्द दिखा देती कि मैं झूठ नहीं थी। मेरे दर्द असिम और पीड़ा आसमान को छू रहे थे!

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दर्द की सीमा या पैरामीटर होता तो कितना अच्छा होता, काश मैं उन सबको दर्द दिखा देती कि मैं झूठ नहीं थी। मेरे दर्द असिम और पीड़ा आसमान को छू रहे थे!

मीनाक्षी, यूनिवर्सिटी में केमेस्ट्री विभाग से एक लेक्चर दे कर खुद को संयोजित करते हुए, विभा मैडम से अचानक मुलाकात से वह बच नहीं पाई। और उनके पूछे जाने पर कि “सब ठीक है?” तो सर हिला के हां में इशारा किया।

वह बोलने की स्थिति में नहीं थी और वह अपने वजूद को खुद में ही नकार रही थी और आदर्श रूप से दिखते हुए, दु:खी मन से गाड़ी में जा के बैठ गई। आखिर में वह किसी से क्या कहती कि तलाक…

और कल आए कोर्ट से तलाक के नोटिस को सोच रही थी और अपनी किस्मत को उलाहना दे रही थी। खुद को अपने ही सवालों में उलझा रखा था।

क्या किसी स्त्री का अपना वजूद नहीं हो सकता? अगर हो भी तो बदलचलन हो जाती है क्या?
कितना सुनाया था, सबने और अमित तुमने भी कि यह राजस्वला सिर्फ बहाना है, तुम्हारा बहाना?
अमित कैसे बोल दिया तुमने… क्या सिर्फ मुझे ही… ‘मासिक धर्म’ जिससे एक नया जन्म दिया जाता है नई ऊर्जा का उत्पन होता है। यह वह बीज है जिस पुरुष और स्त्री या यूं कहे इस सृष्टि का प्रदुभ्व होता है।

तो यह मसिक धर्म जो बस नाम से ही धर्म है, कितनी व्यंग भरी बात है। ‘धर्म’ जिसका कोई धर्म ही नहीं है। जिसको धर्म के नाम अशुद्ध अछूत माना जाता रहा है। हमारे वेदों में (अथर्ववेद संहिता) कन्याओं के जन्म की निन्दा की गई है, और बहुत पुराणों, कथा, कहानियां, सोचने पर मजबुर कर देते हैं, नारी के वजूद को क्या होना भी चाहिए या नहीं? क्या मानक रहे होंगे ऋषि मुनियों के, लोगों के?

अरे! मैं तो (त्रियाचरित्र) हूँ, समाज का दिया हुए वह नाम जो हर नारी को अपने जीवनकाल में कई बार सुना और सामना करना होता है।

त्रियाचरित्र से याद आए, सासू मां ने मुझे कितना सुनाया था दूसरे महीने, जब दर्द से में आराम कर रही थी, “यह त्रियाचरित्र नाही चली इयहा, ई महाराजा के घर ना हवो।”

क्या वह स्त्री नहीं थी? क्यों नहीं समझ पाई मेरे दर्द को क्या मेरा दर्द नखरा था या दिखावा। अमित को कई बार बोलने पर भी वह मुंह फेर लेता था। उसको तो बस इन छह दिन लगता था कि वह मुझे सह रहा है। वह मुझे अछूत या क्या समझता था, मैं खुद भी नहीं समझ पाती थी, ना खुद को समझा पाती थी। क्या पति-पत्नी का रिश्ता सिर्फ संभोग तक ही ठीक था? क्या उसे मेरे यह दर्द बेचैन नहीं करते थे? और संभोग के दर्द, और लाल रंग के खून से उसे कोई पीड़ा या अछूत नहीं लगता था, उसे कोई एहसास नहीं होता था, या मैं बस थी, पर मैं क्यूं थी क्यूं?

खुद के ही सवालों का जवाब भी दे रही थी। करती भी क्या उसे आज खुद से ही जीतना था।
गाड़ी में बैठे अपने अतीत की यात्रा कर रही थी। सबको समझना आसान होता है, खुद को समझने के अलावा। जंग हमारी खुद से होती है, तय हमें करना है जीतना है या हार जाना है।

मैंने मां से कितना मना किया था उस दिन कि अभी शादी मत करो, मेरी नौकरी हो जाने दो, थोड़े दिन ही तो हैं मेरे ज्वाइनिंग लेटर को, क्यों नहीं समझती? क्या लड़कियां एक बोझ है?

“मां मुझसे भी पूछ लो”, लेकिन मां ने एक भी नहीं सुनी। मां ने बस प्रतिउत्तर में कड़े शब्दों में यही कहा, “मिलेगा कहां ऐसा लड़का, पढ़ा लिखा है, माध्यमिक विद्यालय में मास्टर है, दिखता भी अच्छा है। घर खानदान अच्छा है, मां, पिता, एक बहन, एक भाई है और हंसता खेलता परिवार है, और क्या चाहिए तुझे। कब तक? और अब क्या बचा है? सब बेच दिया, खुद को बेच दूं?”

“पर मां मेरी नौकरी हो जाने दो…”

मां ने कहा, “नौकरी जो कई सालों से कोर्ट काचहरी के चक्र से आजाद नहीं हुआ, उस नौकरी की क्या आस लगाना।”

“पर मां एक बार तो नौकरी लग गई तो सब अच्छा होगा…”

लेकिन मां को जैसे आज कुछ सूझ ही नहीं रहा था। ज़रूर रम्भा आंटी ने ही भड़काया होगा। 
मैं मन में कयास लगा रही थी। पिता जी के जानें के बाद मां ने ही संभला हमें, तो मेरा भी धर्म था कि मैं उन्हें परेशान ना करूं। मैंने भी निराश मन से हामी भर दी थी।

शादी के दिन ही मेरा मासिक धर्म था। लेकिन धर्म कैसा, मैं पीड़ा में थी, बहुत जैसे अंदर कोई मशीनी प्रक्रिया चल रही हो जैसे, कोई निचोड़, कोई भारी समान, अन्दर और बाहर आज मैं दोनों बाहरी रूप अच्छे से ढो रही थी।

वह बूंद का गिरना जैसे मालूम हो रहा था, मेरे कई जन्मों के पाप किसी ने गिनाए मुझे, वह दर्द जैसे बच्चा आज ही होना हो या कोई जोड़ो का तोड़ हो, यहां मुझे कोई समझ नहीं पा रहा था और शायद मैं खुद को भी।

क्या मैं एहसान से झुक गई थी या अंदरुनी दर्द बाहरी समाज के सलीके ने नहीं समझ पाई मैं? चेहरे पर नकली मुस्कान, और पोते गए चमक के साथ मैं अमित के साथ खड़ी रही। इसे दिखावे के समाज के सामने सर पर आवरण कि कहीं संस्कार पर कोई अंगुली ना उठाए। भीतर भी आवरण था कि मेरे खुद की मर्यादा बनी रहे, वह लाल रंग इस लाल रंग के जोड़े पर ना लग जाए। दोनों ही तो सुहाग की ही निशानी थी। जीवन दोनों से ही बदलता रहा है स्त्री का, फिर एक शुद्ध दूसरा…?

हालांकि मैंने दोनों मर्यादा को बांए रखा और अमित के साथ सभी के आशीर्वाद तक मैं भी खड़ी रही…

उस दर्द के भारीपन के साथ उस दिन कई दर्द का सामना हुआ मेरा, मना भी कैसी करती, क्योंकि मेरा तो धर्म ही यही था, दर्द से सम्भोग तक का! आँसु, दर्द और वह रात बिना जुबानी बात के, हालांकि शारीरिक बात हुई दर्द रूपी। अमित ना समझना चाहता था, ना ही मैं बोल पाई।

चुकि पहले महीने पैसे के बोझ ने उन्हें रोक रखा था और परिचय भी बहू का कुछ ऐसे ही होता है,
हमारे समाज में पहले के कुछ दिन महारानी बाद में…

दूसरे महीने सासु मां से सुना, त्रियाचरित्र नाही चली इहा। काम तो तोही के करेके पड़ी, चाहे दवाई खा के या कुछ।

क्यों एक औरत दूसरे औरत को नहीं समझ पाती? क्या उसने नहीं सहा या जो सहा वह हमें भी सहना जरूरी हो जाता है? या तभी इस बात का सबूत मिलता है जब अपने दर्द को पी के और एक बुत बन जाना, क्या तभी एक नारी होने के वजूद का पता चलता है? फिर भी उनके नियम के साथ काम करना, मानो अछूत हूँ।

अमित को कई बार पूछा मैंने, पर वह तो बस रात बिस्तर पर ही बात करता था। बोलता, मैं थकान मिटा सकती हूँ बस, देना मेरा काम नहीं।

कैसे बोला था उसने मेरे दर्द को जाहिर करने पर, “पढ़ाता हूँ, तुम्हारी तरह बस बैठा नहीं विद्यायल में।” मैं बस उसके सामने एक शरीर रूपी बुत थी। शायद क्या हूँ, क्या हर बार खुद से पूछा गया सवाल और क्यों हूं मैं?

तीसरे महीने, ननद ने कहा, “अरे! इतना भी का भाभी। हमका भी होत है दर्द, हमतो सहित है इतना दिखाईं सही नाही है।”

दर्द की सीमा या पैरामीटर होता तो कितना अच्छा होता, काश मैं उन सबको दर्द दिखा देती कि मैं झूठ नहीं थी। मेरे दर्द असिम और पीड़ा आसमान को छू रहे थे!
कितने बार मैंने उसे भी संभला है पर उसे मेरे दर्द क्यों नहीं दिखते? सब भूल के अपने काम को देखना जो अछूत था फिर भी सासू दात पिसे पड़ी ही बतियाती थी।

मन निराश, खुद से ही अपने वजूद की मांग किए जा रहा था।

चौथा महीना देवर के ताने, “ऐसा हमेशा इनके हर महीने छह दिन का नौटंकी…”
सब जान कर कैसे सब अनजान बना करता था। कैसे वो बोलता था। शायद वह मेरा मज़ाक बनाया करता था। मैं शब्द हो के भी गुंगी हो जाती थी, गलती मेरी थी, क्योंकि मैं एक स्त्री थी। कोई वजूद नहीं है।

अमित ने बोला था चुप रहना। बड़ों का बड़प्पन चुप्पी में है, कोई कुछ भी बोले…मैं क्या ही करती बस चुप रहने के आलावा।

अंततः पांचवे महीने, मैं दरवाज़े पर ही थी, अन्दर आई तो बिगड़े हुए मूड से अमित…

“लेकिन मैं आज महीने में हूँ अमित…”

“तो क्या हुआ। मीनाक्षी तुम्हारा काम मेरा मूड सही करना है ना कि दु:ख रोते रहना।”

“सबको सह लेना आसान होता है लेकिन अमित तुम…”

“क्या हर बार का यही तो है तुम्हारा, कभी कुछ कुछ…”

“पर अमित मै महीने में हूँ। इसमें दो दर्द का सामना करने की हिम्मत नहीं मुझमें।”

गुस्साए हुए अमित ने तकिया उठाया और बोला, “तुम घर चले जाओ यहां तुमसे कोई खुश नहीं।”

“अमित तुम?”

“शायद अब मैं भी नहीं।”

“पर मेरा कसूर क्या है? स्त्री होना? बस इतना ही…”

“शायद मेरी पत्नी होना…”

“नहीं, मेरा बस स्त्री होना”, यह मेरे आखिरी शब्द थे उसके लिए!

और सामान लेकर अपने उस लाल वजूद के साथ जैसे पहले दिन आईं थी वैसे ही निकल भी आई।
मैं घर ना जाके विभा मैडम के साथ रुकी कुछ दिन तक।

‘मैंने घर छोड़ दिया है’, अब यह बताने के लिए या उलाहना देने के लिए घर नहीं था, माँ नहीं थी, वह पिछले महिने हीं चल बसी और आज छ: माह बीत गए…

किसी ने पूछा तक नहीं…

क्या मेरा वजूद बस अमित के बिस्तर तक ही था? खुद से कितना पूछा मैंने इन छ: महीनों में…
बारह महीने के बाद मेरे नौकरी की बहाली हो गई, जो कानूनन रूप से रोक दी गई थी। पिछले महीने की ज्वाइनिंग हुई, और आज यह पहला दिन पढ़ाने का, वह भी कब मिला जब कल अमित ने तलाक का नोटिस भेजा। शायद वह दूसरी शादी कर रहा था?

मैंने अपना वजूद बना लिया था। आज मैं नारीशक्ति थी। वह शक्ति जिसे सब अबला कहते थे, समझते थे। मन में स्त्री के वजूद पर फिर गहरी हसीं आई, और रोना भी, गुस्सा भी, क्या स्त्री का वजूद बस यही है फिर समाज में स्वीकार क्यों नहीं है? अगर अछूत हम हैं तो तुम क्यों नहीं? यह सृष्टि क्यों नहीं है?

बिना लाल वजूद के कोई स्त्री का वजूद नहीं फिर क्यों? नहीं हो तो बांझ, हो तो मन पर आघात?
अपने अतीत को छोड़ मैं आगे निकल गई थी। अब मैं बस मैं थी मैडम मीनाक्षी। आंसू पूछते हुए जो दिल को हलका किए थे, दर्द की दवा खा के मैं अपने फ्लैट पर पहुंचते ही आपसी सहमति से तलाक नोटिस पर हस्ताक्षर करते हुए अपने वजूद के मुस्कान के साथ हाथ में चाय विमला ने दिया,
सुकून भरी शांति का एहसास करते हुए, गाना सुन कर आराम करने लगी।

मूल चित्र : Gaurav Bagdi, Unsplash

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रंजनी मणि त्रिपाठी

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