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अब मैं किसी का जूठा नहीं खाऊँगी…

सही कह रहे हो। गलती मेरी है और मैं ही सुधार करूँगी। क्योंकि उसने वही कहा और किया जो उसने अभी तक देखा और महसूस किया।

सही कह रहे हो। गलती मेरी है और मैं ही सुधार करूँगी। क्योंकि उसने वही कहा और किया जो उसने अभी तक देखा और महसूस किया।

“रोहन बेटा! सुनो मेरी बात, खाना पूरा खत्म करते हैं। ऐसे खाने को नहीं छोड़ते।” पूनम ने अपने पांच साल के बेटे को समझाते हुए कहा।

“नहीं माँ! मुझे नहीं खाना! ये आप खा लेना।”

बेटे का ये जवाब सुन के उसके पापा अजय ने कहा, “रोहन बेटा! लेकिन अपना खाना खुद खत्म करते हैं। किसी को भी अपना जूठा खाने के लिए नहीं कहते।”

“फिर पापा आप अपना क्यों जूठा देते हो? मम्मी तो आप का जूठा खाती हैं। और वो तो आपके, मेरे दादाजी और दादीजी के बाद ही खाना खाती हैं। तो आज मेरा भी जूठा खा लेंगी। क्यों मम्मी! मैं तो सही कह रहा हूँ ना? मम्मी आप तो पापा का जूठा खाती हैं, मैंने खुद देखा है।”

रोहन के मुँह से ऐसी बातें सुन के, पूनम को समझ नहीं आया कि रोहन को क्या समझाए? गुस्से में अजय ने रोहन को डांटते हुए कहा, “रोहन तुम बहुत बद्तमीज़ होते जा रहे हो। बड़ों की बराबरी नहीं करते। अब जाओ यहाँ से। ”

“क्यों डाँट रहा है उसे? बच्चा है, समझ जाएगा कोई बात नहीं। नहीं खायेगा तो पहाड़ थोडी टूट जाएगा”, पूनम के ससुर जी बोले। रोहन अपने पापा का ये रूप देख के डर कर रोता हुआ पूनम के पास जा के छिप गया। पूनम के दिमाग में बेटे की बातें ही घूम रही थीं, क्योंकि वो ना तो झूठ बोल रहा था, ना ही गलत। उसने तो वही बात बोली जो देखा और महसूस किया।

पूनम ने किचन के सब काम समेटे और किचन साफ किया। अपने ससुर जी को रात की दवाइयाँ देकर और उनके पीने का पानी रख कर अपने कमरे में आयी। लेकिन पूरा समय उसके दिमाग में रोहन की कही हुई बात ही चलती रही।

कड़वा सच या बदतमीज़ी?

तभी अजय ने कहा, “रोहन बहुत बदतमीज होता जा रहा है। आजकल हर बात का जवाब देता हैं। आज तो हद ही कर दी ,उसने! तुम अब उसके साथ थोड़ा सख्ती से पेश आया करो वरना तुम्हारे ज्यादा लाड़ प्यार से बिगड़ जाएगा।”

पूनम अजय की बातों को सुन रही थी। फिर उसने कहा, “सही कह रहे हो। गलती मेरी है और मैं ही सुधार करूँगी। क्योंकि उसने वहीं कहा और किया जो उसने अभी तक देखा और महसूस किया।अजय हम उसे अच्छी आदतें किसी कविता की तरह रटा नहीं सकते। बल्कि हमें भी वो अच्छी आदतें करनी होगी तो ही रोहन भी सीखेगा।”

अगले सुबह नाश्ते पर उसने टेबल पर सबका नाश्ता सर्व करने के बाद खुद की भी प्लेट लगायी। तो रोहन ने पूछा, “मम्मी आज से आप भी हमारे साथ खाओगी?”

तब पूनम ने मुस्कुराते हुए कहा, “हाँ! बेटा!” पूनम के सास ससुर उसे चुपचाप देखने लगी क्योंकि आज पूनम का बदला रूप उन्हें भी समझ में आ चुका था और वो चुप ही रहे। फिर रोहन को समझाते हुए कहा, “और आज से सभी अपना खाना खुद ही खत्म करेंगे।”

“पापा भी?”

“हाँ! पापा भी”, अजय ने कहा। “और कभी किसी का जूठा नहीं खाते। जूठा खाने से प्यार नहीं सिर्फ बीमारियां बढ़ती हैं। और खाना जूठा छोड़ने से खाना खराब होता हैं। हमें तो स्वस्थ रहना है। तो इसके लिये हमें पौष्टिक खाना खाना होगा। और कल पापा आप पे गुस्सा हुए, इसके लिए सॉरी।”

“सॉरी पापा! मैंने भी आपको जवाब दिया”, रोहन ने कहा।

नए ज़माने में पुरानी प्रथा?

अकसर हर घर की कहानी यही होती है। महिलाएँ घर के बचे खाने को फेंकने  के बजाए खुद खाती हैं या यह उनकी मजबूरी हो जाती है। बरसों पुरानी प्रथा अब बहुत से घरों में तो बदल चुकी है। लेकिन अभी भी ऐसे कई घर है जहाँ औरतों को पति का जूठा या या पति की जूठी थाली में ही खाना अनिवार्य होता हैं। जो औरत इस नियम को मानती हैं या थी लोग उसे संस्कारी पत्नी मानते हैं।

ये भी एक ऐसी प्रथा है जो हमारे समाज में लिंग भेद का कारण है। लेकिन बच्चा तो वही सीखता है जो देखता और महसूस करता है। यहीं से एक लड़के के अंदर अहम जन्म भी शुरू होता है। दूसरी तरफ शादी के बाद औरतें खाना फेंकने और बेकार होने की वजह से खुद ही खाती हैं जिससे वो शादी के बाद मोटापे और तमाम बीमारियों को जाने अनजाने निमंत्रण भी दे देती है।

मूल चित्र : YouTube, DesiKaliah

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