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और उसने अपनी मनपसंद पीली साड़ी पहन ली…

"चिल्लाना बंद कीजिये! संस्कार देने की ज़िम्मेदारी माता पिता दोनों की होती है, अकेली माँ की नहीं। आपने कभी माँ को बराबरी का दर्जा नहीं दिया।"

“चिल्लाना बंद कीजिये! संस्कार देने की ज़िम्मेदारी माता पिता दोनों की होती है, अकेली माँ की नहीं। आपने कभी माँ को बराबरी का दर्जा नहीं दिया।”

रविवार के दिन था। रोज़ की तरह महेन्द्र जी चाय की चुस्कियों के बीच अख़बार पढ़ने में तल्लीन थे। तभी उनकी नन्हीं सी पोती परी ठुमकते हुए आई और बोली, “दादाजी, आज पापा हमें पार्क में ले जा रहे हैं, झूला झूलने में कितना मज़ा आयेगा न!”

यह सुनते ही महेन्द्र जी का मन बेचैन हो उठा और वे पत्नी सरला से तेज़ स्वर में बोले, “छुट्टी के दिन भी तुम्हारे बेटे को घूमने से फ़ुरसत नहीं? बूढ़े माँ बाप के पास वह दो घड़ी बैठना भी नहीं चाहता? मैंने सोचा था कि बेटा बहू बुढ़ापे में मेरा ख़्याल रखेंगे, पर न जाने कैसी परवरिश दी है तुमने? जीवन में एक काम भी तुम ठीक तरीक़े से नहीं कर पाईं?”

महेंद्र जी बड़े सरकारी अफ़सर रहे हैं और अब सेवानिवृत्ति के पश्चात बेटे अनूप के साथ बैंगलोर में रहते हैं। उनकी हर बात में साहबियत झलकती है। यदि किसी ने उनके हुक्म की ज़रा भी अनदेखी की तो वे सारा आसमान सिर पर उठा लेते हैं। बच्चों से बात करना वे अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं, इसीलिए उनके व अनूप के बीच बहुत ही कम और आवश्यक बातें ही होती हैं। अभी तक सरला जी ही पति महेन्द्र और पुत्र अनूप के बीच पुल का कार्य करती रहीं हैं।

इससे पहले कि वे अनूप से कुछ कहतीं, अनूप स्वयं ही महेन्द्र जी की बात सुन कर कमरे में आ गया और सधे हुए शब्दों में बोला, “मैं नहीं चाहता पापा कि परी भी वैसा ही बचपन जिये जैसा कि मुझे मिला। आपने सदा ही अपने काम को परिवार से अधिक प्राथमिकता दी। आप सदा ऑफ़िस के दौरों में और अधिक से अधिक तरक़्क़ी पाने तथा पैसा कमाने की होड़ में लगे रहे।

मुझे याद नहीं कि आप कभी पैरेन्ट टीचर मीटिंग में मेरे स्कूल आये हों या कभी मुझसे मेरी पढ़ाई के बारे में पूछा हो। सदा माँ ने अकेले ही घर की सारी ज़िम्मेदारियाँ निभाईं। आपने कभी हमारे साथ समय बिताने की चेष्टा नहीं की। आप कभी भी हमें अपने साथ लेकर कहीं बाहर घूमने नहीं गये। शायद आपको परिवार के साथ समय बिताना पसन्द ही नहीं। आपके लिये आपका परिवार मायने ही नहीं रखता। आपने कभी घर को घर बनाने का प्रयास किया? “घर” हवा में नहीं बना करते पापा, ख़ैर रहने दीजिए, आप नहीं समझेंगे।”

अनूप की बातें सुन सरला जी की आँखों से आँसू बह निकले। वर्षों से एकत्रित उनकी मूक पीड़ा को आज अनूप ने शब्द दे दिये थे। वे जीवन भर महेन्द्र जी की उपेक्षा और तिरस्कार ही झेलती रहीं।

उन्हें याद है, वे कितनी प्रसन्न थीं जब महेन्द्र जी से उनका विवाह तय हुआ था। उनकी सारी सखियाँ चुटकी लेतीं, “तू तो बड़ी क़िस्मत वाली है। तेरा होने वाला पति तो सरकारी अफ़सर है। ज़िन्दगी भर राज करेगी। महारानी की तरह रहेगी!”

परन्तु ऐसा कहाँ हो पाया था? ससुराल आते ही तेज़ तर्रार और दबंग सास के हाथों की कठपुतली बन कर रह गईं थीं वह। रही सही कसर अफ़सरी के रौब में सराबोर पति महेन्द्र ने पूरी कर दी थी।

वे सरला को अपनी पाँव की जूती समझते थे। घर का पत्ता भी उनकी मर्ज़ी के बग़ैर नहीं हिलता था। यदि सरला जी कभी कुछ कहतीं भी तो महेन्द्र जी गवाँर और जाहिल कह कर उनका उपहास बनाते। एम. ए. तक पढ़ी सरला जी का आत्मविश्वास पूरी तरह टूट चुका था।

विवाह के तीन वर्ष बीतते बीतते उनकी गोद में अनूप आ गया था और फिर दो वर्ष बाद लाड़ली बिटिया गौरी।

बच्चों के आने के बाद सरला जी बच्चों की मुस्कुराहटों में अपनी ख़ुशियाँ ढूँढने लगीं थीं। अनूप और गौरी के पालन पोषण में उन्होंने स्वयं को झोंक दिया था।

गुज़रते समय के साथ बच्चे भी अपने पिता के माँ के प्रति दुर्व्यवहार को समझने लगे थे इसलिये वे महेन्द्र जी से दूर तथा अपनी माँ के समीप होते गये। वे अपने मन की सारी बातें सरला जी से किया करते।

आज अनूप की बातें सुनकर महेन्द्र जी दो पल के लिये तो ठगे से खड़े रह गये फिर सरला जी पर चिल्लाते हुए बोले, “यही शिक्षा और संस्कार दिये हैं तुमने अपने बच्चों को? देखो कैसे तुम्हारा बेटा मुझसे ज़बान लड़ा रहा है…”

“माँ पर चिल्लाना बंद कीजिये पापा, संस्कार देने की ज़िम्मेदारी माता पिता दोनों की होती है, अकेली माँ की नहीं। आपने कभी माँ को बराबरी का दर्जा नहीं दिया। कभी उनकी इच्छा अनिच्छा का सम्मान नहीं किया। आप सदैव उन्हें कठपुतली समझते रहे जिसका स्वयं का कोई वजूद नहीं। ये माँ के दिये संस्कार ही हैं कि मैं आप जैसा पुरुष नहीं बना। मेरे मन में मेरी पत्नी के लिये भरपूर सम्मान है। आज स्त्री और पुरुष बराबर हैं। एक दूसरे के पूरक हैं। स्त्री दासी नहीं संगिनी है।” अनूप के इन शब्दों ने जैसे आग में घी का काम किया।

महेन्द्र जी क्रोध में कुछ और बोल पाते, अनूप ने आगे कहा, “बस अब बहुत हो गया पापा! आज से आप माँ को कुछ नहीं कहेंगे। अपने घर में, मैं अपनी माँ का अपमान नहीं सह सकता।”

सरला जी की आँखों से निरन्तर आँसू बह रहे थे। अनूप के कड़े तेवर ने महेन्द्र जी के क्रोध पर जैसे पानी के छींटे डाल दिये। सरला जी आँसू देख कर महेन्द्र जी बोल पड़े, “सच कह रहे हो बेटा, मैंने बचपन से यही जाना कि स्त्री घर की दासी होती है जिसका कार्य केवल पुरुष के आदेशों का पालन करना है। अपने पिताजी से भी मैंने यही सीखा कि पत्नी को सदा क़ाबू में रखना चाहिये। मैंने सदा अपनी माँ को पिता जी के आदेशों का पालन करते ही पाया। मेरी माँ ने कभी अपने लिए आवाज़ ही नहीं उठाई।

परन्तु एक तरह से सोचो तो यह अच्छा ही हुआ कि मैं अपने परिवार को अधिक समय नहीं दे पाया, मेरी अनुपस्थिति में सरला ने तुम्हारी और गौरी की अच्छी परवरिश की, अच्छे संस्कार दिये। स्त्री का भी घर में बराबर का अधिकार है। बराबर सम्मान है, यह बात मैंने भी आज गाँठ बाँध ली है। घर केवल स्त्री से ही होता है। एक मक़ान को घर बनाने का दुरूह कार्य केवल स्त्री ही कर सकती है। मैं अपने विचारों को बदलने का भरपूर प्रयास करूँगा।”

फिर वे आँचल से आँसू पोंछती सरला के पास आ खड़े हुए और स्नेहसिक्त शब्दों में बोले, “सरला, क्या तुम मुझे माफ़ कर पाओगी?”

“मेरे पास और कोई रास्ता है क्या?” सरला जी अपने आँसू पोंछते हुए बोलीं।

“चलो माँ, यह सब छोड़ो और जल्दी से  तैयार हो जाओ, अब हम सब मिल कर हर रविवार को बाहर घूमने चला करेंगे। बस एक बात हमेशा याद रखना कि तुम कोई कठपुतली नहीं, मेरे घर की तुम भी एक मालकिन हो”, अनूप ने मुस्कुराते हुए कहा।

“आज तुम गलाबी वाली साड़ी पहनना… तुम पर बहुत खिलती है”, यह महेन्द्र जी का स्वर था।

सरला जी ने अपनी अलमारी खोलकर अपनी मनपसंद पीली सिल्क की साड़ी पहनने के लिये निकाली और कठपुतली का चोला उतार कर फेंक दिया।

मूल चित्र : Still from Milan Thakar #letsstandbyher, YouTube

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