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पराग को देखते ही मैं उसे पहचान गई। यह वही पराग था। उसने मुझे देखते ही अपनी नज़रें चुरा लीं और मुझे अनदेखा करने का नाटक करने लगा।
अब तक मन मोहिनी (भाग – 2) में आपने पढ़ा –
अब दीदी और पलक के साथ मेरा दिल का रिश्ता बन चला था। पलक कई बार अकेली ही मेरे पास आ जाया करती, फिर हम कभी लूडो खेलते कभी साँप-सीढ़ी।
अब आस पड़ोस में भी मेरी और मोहिनी दीदी की दोस्ती के चर्चे होने लगे थे। सभी के मन में एक ही सवाल था कि आख़िर पढ़ी लिखी स्मार्ट मीता और अनपढ़ गँवार मोहिनी के बीच दोस्ती कैसे पनप रही है?
अब आगे –
इसी बीच एक और घटना हुई। हुआ यूँ कि स्थानीय विद्यालय के प्रधानाचार्य को जब यह पता चला कि मेरे पास विज्ञान विषयों के साथ स्नातकोत्तर डिग्री है, तो उन्होंने चपरासी के हाथ मुझे संदेश भिजवाया कि मैं उनसे अर्थात प्रधानाचार्य से जाकर मिलूँ।
अगले दिन विद्यालय पहुँचते ही प्रधानाचार्य महोदय मुझसे बोले, “आपने अभी ही रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर किया है, मैं चाहता हूँ कि आप हमारे विद्यालय में रसायनशास्त्र पढ़ाएँ। आप अपने सर्टिफ़िकेट्स के साथ आएँ और कल से ही अध्यापन कार्य आरम्भ कर दें।”
यह सुनहरा अवसर पाकर मैं प्रसन्नता से झूम उठी व प्रधानाचार्य महोदय का आभार प्रकट करते हुए घर वापस आ गई।
अगले दिन जब मैं विद्यालय पहुँची तो प्रधानाचार्य महोदय ने अन्य अध्यापक व अध्यापिकाओं से मेरा परिचय कराया। सभी औपचारिकताएँ पूर्ण करने के पश्चात मैं समयसारिणी के अनुसार अपना पहला व्याख्यान (लेक्चर) लेने कक्षा ग्यारह में घुसी।
कक्षा में घुसते ही मेरी नज़र कोने में बैठे पराग पर पड़ी। पराग को देखते ही मैं उसे पहचान गई। यह पराग मोहिनी दीदी का पुत्र था। उसने मुझे देखते ही अपनी नज़रें चुरा लीं और मुझे अनदेखा करने का नाटक करने लगा।
अगले चार पाँच दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा। कक्षा के बाक़ी छात्र व छात्राएँ मुझसे घुलने मिलने लगे थे परन्तु पराग अलग थलग ही रहता। बल्कि अब वह कक्षा में सबसे पीछे वाली बेंच पर बैठने लगा था जिससे उस पर मेरी कम से कम दृष्टि पड़े।
इधर मोहिनी दीदी से मेरी मुलाक़ातें थोड़ी सी कम हो गईं थीं। अब मोहिनी दीदी पलक के साथ कभी कभी शाम को आ जाया करतीं और आते ही मुझे उलाहना देती हुई कहतीं, “अब तो तुम बड़ी वाली टीचर जी हो गई हो। अपनी दीदी से बात करने को तुम्हरे पास टैम (टाइम) कहाँ?”
और मैं हँसते हुए उत्तर देती, “मेरे पास अपनी दीदी के लिए टैम ही टैम है।”
अब मैं विद्यालय के कामों में रमने लगी थी और सभी छात्र छात्राओं के बीच लोकप्रिय भी। बच्चों की जिज्ञासाएँ शान्त करने में मुझे आनन्द आता और बच्चे भी बेझिझक हो, मुझसे ढेर सारे सवाल करते। परन्तु पराग अब भी पहले की तरह ही मुझसे खिंचा खिंचा सा रहता।
एक दिन प्रयोगशाला में रसायनशास्त्र का प्रयोग चल रहा था और मैं भी वहीं बच्चों को प्रयोग समझा रही थी। तभी मेरी नज़र पराग पर पड़ी जो चुपके से प्रयोगशाला के कोने में जाकर रैक से एक घातक रसायन (एसिड)की बोतल से अपनी पानी की बोतल भर रहा था। उसने वह बोतल भरी और फिर बोतल को अपने बस्ते के पास रखकर बच्चों के झुंड में शामिल हो गया।
यह देखकर मेरे मन में उथल पुथल मच गई, ‘पराग क्या करेगा इस एसिड का? एसिड ले जाने के पीछे क्या इरादा है उसका? क्या करूँ मैं? सभी के बीच में उसको डाँटूँ? पूछूँ कि उसने एसिड अपनी बोतल में क्यों भरा? यदि मैं सबके बीच में पूछूँगी तो प्रधानाचार्य महोदय तक ख़बर पहुँचेगी और एसिड चुराने के जुर्म में पराग को विद्यालय से निष्कासित भी किया जा सकता है। यह बात सामने आ गई तो तूफ़ान आना तय है।’
आज प्रायोगिक कक्षा के पश्चात ही विद्यालय की छुट्टी होनी थी, इसलिए मैंने त्वरित निर्णय लिया और शांत चुपचाप अपना कार्य करती रही।
छुट्टी की घंटी बजते ही सारे बच्चे घर जाने लगे तो मैंने पराग को आवाज़ दी। पराग अपने चार पाँच दोस्तों के साथ रुक गया और बड़ी रुखाई से मुझसे बोला, “क्या बात है मिस? अब तो छुट्टी हो गई, आपको मुझसे क्या काम है?”
मैंने उसके दोस्तों से कहा, “तुम लोग घर जाओ बच्चों। मुझे पराग से अकेले में बात करनी है।”
“अकेले? अकेले में क्यों? मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी है मिस। मुझे घर जाना है।”
पराग सकपकाते हुए काँपती सी आवाज़ में बोला।
“तुम लोगों ने सुना नहीं मैंने क्या कहा? तुरन्त घर जाओ और पराग तुम यहीं रुकोगे”, मैंने पराग के दोस्तों को डाँटते हुए दृढ़ स्वर में कहा।
अब पराग मेरे सामने नज़रें झुकाए खड़ा था। प्रयोगशाला की नीरवता भंग करते हुए मैंने उससे पूछा, “तुमने पीछे की रैक से एसिड निकाल कर अपनी वॉटर बॉटल में क्यों भरा?”
“नहीं मिस, आपको ग़लतफ़हमी हुई है। मैं एसिड घर क्यों ले जाऊँगा? मैंने कहीं से कोई एसिड नहीं भरा…” पराग की आवाज़ लड़खड़ाने लगी।
“मैंने ख़ुद अपनी आँखों से देखा है कि तुमने अपनी बॉटल में एसिड भरा है। सीधी तरह से सही सही बात बताओ वरना मैं अभी तुम्हें प्रिंसिपल सर के पास ले चलती हूँ। तुम उन्हीं के सामने सारी सच्चाई बताना। अब तुम्हें इस विद्यालय से निष्कासित होने से कोई नहीं रोक सकता।”
मैंने ग़ुस्से में लगभग चिल्लाते हुए कहा।
पराग के तेवर ठंडे पड़ चुके थे और उसकी आँखों में आँसू झिलमिलाने लगे थे।
वह कातर स्वर में बोला, “प्लीज़ मिस, प्रिंसिपल सर से शिकायत मत कीजिए। हाँ, मैं एसिड अपने घर ले जाना चाहता था।”
“पर क्यों? एसिड का तुम क्या करोगे? तुम्हें पता है एसिड कितना घातक होता है? थोड़ा सा भी त्वचा पर छू भर जाए तो त्वचा जलकर लटक जाती है। किसी इंसान पर पड़ जाए तो वह बुरी तरह जल जाता है और मृत्यु भी हो सकती है…”
मैंने उसे शांत और स्नेहिल शब्दों में समझाते हुए कहा।
“यही तो मैं चाहता हूँ कि वो मर जाए”, पराग आक्रोश में भर कर बोला। उसका चेहरा ग़ुस्से से तमतमाने लगा।
“ऐसा नहीं कहते बेटा। कौन मर जाए? किसकी मृत्यु की दुआ माँग रहे हो तुम?”
मैंने उसके पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
“मम्मी! और कौन? आई हेट हर (मैं उनसे नफ़रत करता हूँ) उन्होंने हमारी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी है। इतनी गँवार और पागल हैं वो। यहाँ स्कूल में भी सब मेरा मज़ाक़ बनाते हैं कि मैं पागल माँ का बेटा हूँ। वो मर जाएँगी तो हम चैन से रहेंगे, पापा, पलक और मैं…”
पराग के भीतर का ज्वालामुखी फूट पड़ा।
“आओ यहाँ बैठो”, मैंने एक कुर्सी उसके सामने कर दी और सामने की कुर्सी पर बैठते हुए बोली, “तुमने बायलॉजी में पढ़ा है न कि एक माँ किन कष्टों और कठिनाइयों से गुज़र कर अपने बच्चे को जन्म देती है? वह यह सारे कष्ट पल भर में भूल जाती है जब वह पहली बार अपने बच्चे का मुख देखती है। एक औरत की सारी दुनिया उसके बच्चे होते हैं। मोहिनी दीदी ने भी तुम्हें असह्य कष्ट सह कर जन्म दिया है। सोचो उन्हें कैसा लगता होगा जब वे तुम्हारी आँखों में अपने लिए नफ़रत देखती होंगी?”
“वो हैं ही नफ़रत करने लायक़। बिलकुल जाहिल, गँवार और पागल…”, पराग ग़ुस्से में एक एक शब्द चबाते हुए बोला।
“अच्छा बताओ, जाहिल गँवार होना बुरा क्यों है? यदि तुम भी किसी गाँव में पैदा हुए होते, किसी गाँव के ऐसे छोटे से स्कूल में पढ़ते, जिसमें कोई भी शिक्षक या शिक्षिका अच्छी तरह से न पढ़ाते और तुम्हारे पापा डॉक्टर न होकर मान लो, किसान होते, तब? तब तो तुम भी जाहिल गँवार ही कहलाते न?”
मैंने उसे समझाते हुए कहा और फिर उसकी तरफ़ अपना प्रश्न उछाला, “ये बताओ पराग कि तुम्हें किसने बताया कि तुम्हारी मम्मी पागल हैं?”
“पापा ने, और किसने? पापा तो मम्मी को हमेशा दवा देते हैं कि मम्मी जल्दी से अच्छी हो जाएँ, पर मम्मी? वही, पागल की पागल।”
पराग की बातों में अब झिझक ख़त्म हो चली थी और वह खुलकर मुझसे बात कर रहा था।
“फिर तो मम्मी को दवाओं से फ़ायदा होना चाहिए था। इसका तो अर्थ यह है कि या तो मम्मी को दवाएँ असर नहीं कर रहीं या फिर ग़लत दवाएँ दी जा रही हैं?”
मैंने पराग के चेहरे पर नज़रें टिकाए हुए कहा और उसके चेहरे पर आते जाते भावों को पढ़ती रही। फिर मैंने कहा, “जब मोहिनी दीदी को दवाएँ असर नहीं कर रही हैं तो क्या तुमने कभी अपने पापा से कहा कि मम्मी का इलाज किसी दूसरे डॉक्टर से कराएँ। नहीं न? क्यों? नाउ, यू आर अ बिग ब्वाय पराग (अब तुम बड़े लड़के हो पराग)!
अब पराग के चेहरे का रंग फीका पड़ चुका था। उसने धीरे से कहा, “मिस, क्या ग़लत दवाएँ देकर किसी को पागल बनाया जा सकता है?”
“हाँ बिलकुल।”
मैंने भी धीरे से उत्तर दिया फिर पराग से कहा, “तुम अपनी वॉटर बॉटल यहीं छोड़ जाओ, मैं किसी से कह कर उसे सही जगह फिकवा दूँगी।”
“आप मेरी इस बेवक़ूफ़ी के बारे में प्रिंसिपल सर को बताएँगी न मिस?” पराग ने डरते डरते पूछा।
“बिलकुल नहीं…पर तुम भी वादा करो पराग कि भविष्य में ऐसी बेवक़ूफ़ी दोबारा नहीं करोगे और मोहिनी दीदी को समझने का प्रयास करोगे।”
मैंने पराग के सिर पर हाथ फेरा और मुस्कुराते हुए कहा।
“थैंक यू मिस…यू आर रियली वेरी स्वीट (आप बहुत अच्छी हैं)”, कह कर पराग भी मुस्कुरा दिया।
उसने अपनी वॉटर बॉटल प्रयोगशाला के सिंक में रखी और बस्ता उठा कर चलने लगा। दरवाज़े तक पहुँच कर वह मुड़ा और मुझसे बोला, “मिस, क्या मैं आपको अकेले में मौसी कह सकता हूँ…जैसे पलक कहती है?”
“हाँ बिलकुल…”
कहकर मैं भी मुस्कुरा दी।
कहानी के भाग पढ़ें यहां –
मन मोहिनी का भाग 1 पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 2 पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 3 पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 4 पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 5पढ़ें यहां
मन मोहिनी का भाग 6 पढ़ें यहां
मूल चित्र : Waghbakri via YouTube(only for representational purpose)
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