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खरीदार मैं हूँ तुम्हारी, तुम नहीं…

जीवनसाथी तलाशते हो या बुढ़ापे में सेवा करने के लिए कोई आया, मुझे तो तुम्हारा यह समाज आज तक कुछ समझ में नहीं आया...

जीवनसाथी तलाशते हो या बुढ़ापे में सेवा करने के लिए कोई आया, मुझे तो तुम्हारा यह समाज आज तक कुछ समझ में नहीं आया…

सुनो यह उम्र के पैमाने क्या सिर्फ हमारे लिए हैं?

जब 18 साल की लड़की को यह 40 साल का पुरुष ब्याह कर ले आता है तब तुम्हें वह पिता वाला एहसास नहीं होता?

जब तुम्हें 30-35 साल की और महिला को ‘आंटी‘ का संबोधन देते हो, तो तुम्हें थोड़ी भी लाज नहीं आती?

बहन-दीदी जैसे शब्दों के मायने तो आजकल शायद खो गए हैं कहीं।

क्यों अक्सर तुम अपने से कमजोर नाजुक और बुद्धि में कम जीवनसाथी की तलाश में यूं घूमा करते हो?

पुरुषार्थ तुम्हारा या शारीरिक तुम्हारी कोई कमजोरी?

जीवन साथी तलाशते हो या बुढ़ापे में सेवा करने के लिए कोई आया,

जवानी में चाहिए तुम्हें रूप का ख़ज़ाना और ढेरों दहेज की माया?

मुझे तो तुम्हारा यह समाज आजतक कुछ समझ में नहीं आया,

जीवन साथी की यह तलाश या है कोई मोह-माया।

ना सम्मान, ना प्यार, ना अधिकार; लगता है कोई खरीदार मुझे खरीद कर है लाया।

काश हो ऐसा कि कह सकूं मैं तुम्हें एक दिन दहेज तो मेरे पिता ने दिया है,

खरीददार तो मैं हुई, तो तुम में ये घमंड कहां से आया?

पर जानती हूं मैं इतना कि तुम्हारे समाज में ये शायद मुझे अधिकार नहीं,

क्यूंकि पिता और भाई के लिए मैं हूं बस एक बोझ।

पति तो हां वो तो हो तुम मेरे…

पर जीवन साथी का मुझे कोई एक भी अधिकार तुम्हें कब तुम्हें देना आया?

जिंदगी में साथ-साथ हम चल तो रहे हैं पर तुम्हें मेरा साथ देना आज तक नहीं आया,

मान, सम्मान, प्यार के दो बोल, हो समान अधिकार तुम्हारा और मेरा बस मांगू इतना सा संसार।

मूल चित्र : Himesh Mehat via Pexels

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