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हमारे बीच कभी प्यार था ही नहीं…

"एक बात थी जो जाने कितने दिनों या कह सालों से मेरे अंदर गांठ बनकर पल रही है। पहले वादा कर इस बात से हमारी दोस्ती पर कोई आंँच नहीं आएगी।"

“एक बात थी जो जाने कितने दिनों या कह सालों से मेरे अंदर गांठ बनकर पल रही है। पहले वादा कर इस बात से हमारी दोस्ती पर कोई आंँच नहीं आएगी।”

“कितनी बदल गई है तू शिब्बू! तेरा नाम शिवानी से बदल कर सेठानी रख देती हूंँ। कुछ करती नहीं क्या अपने लिए?”

मनीषा एक लंबे समय बाद अपनी बेस्ट फ्रेंड शिवानी से मिली थी। स्कुल की ये दोस्ती अब प्रौढ़ावस्था की ओर बढ़ चली थी, पर मानो मिलते ही दोनों का बचपना लौट आया था।

“क्या नहीं करती, बोल? पर पति के अन्न में बहुत ताकत है रे! दिन भर घर बार बच्चे परिवार के पीछे एक टांग पर भी खड़ी रह कर भी मेरा ये जिद्दी मोटापा टस से मस नहीं होता। क्या करूंँ? तू तो बता सकती, है ना? तू तो पहले जैसी ही है बल्कि पहले से भी सुंदर लगने लगी है। करती क्या है आखिर यार?” शिवानी पूछ ही बैठी।

“अरे समय लगाती हूंँ खुद में। घर-बार, पति-बच्चे सब अपनी जगह पर हैं पर अपने प्रति ईमानदार ना रहूंँ तो भला ऐसी ईमानदारी किस काम की! बोल?”

“बात तो तेरी सच है, पर जी नहीं मानता ना, घर के लोग हर चीज के लिए मेरी आस में बैठे रहें और मैं खुद को अपने आप में लगाए रखूंँ तो गिल्ट होती है यार। एक दिन सुबह सुबह वाॅक के लिए निकल गई। वापस आते देखा तो गोलू नाश्ते के बिना भूखा बैठा था। छोटी दूध के लिए रो रही थी और ये आफिस के लिए तैयार होने की बजाय किचन में अपने लिए चाय बना रहे थे और बच्चों को भी संभाल रहे थे। सबकी दशा देख मुझे तो रोना आ गया यार। सब इतने डिपेंड है मुझपे क्या करूंँ?”

“वो ठीक है तेरे दोनों बच्चे छोटे हैं, पर हर समस्या का हल होता है दुनियां में। कोई ना कोई निदान तो निकालना होगा ना डियर। अच्छा ये बता ‘हेल्प’ तो रखती है ना?” मनीषा ने पूछा

“हांँ, पर उसे लेट बुलाती हूं। जब पति आफिस और गोलू स्कुल चला जाता है। फिर एकबार वो सारा काम कर देती है तो पूरे दिन घर साफ सुथरा रहता है। सफाई को लेकर मुझसे समझौता नहीं होता यार”, शिवानी ने कहा।

“यही तो सबसे बड़ी गलती है तेरी! देख मेरी बात सुन, थोड़ा सा जल्दी उठ सकती है तो अपने लिए कुछ समय निकाल ले, तेरी सेहत भी ज़रूरी है और उसके लिए तुझे पता है कि मेहनत करनी पड़ेगी थोड़ी। अपनी रूटीन एडजस्ट कर ले!”

“हांँ, बात तो तू बिल्कुल सही कह रही है, छह बजे तो ऐसे भी उठ ही जाती हूंँ, बस वीकेंड में…”

“तो वीकेंड में सात बजे जा वाॅक करने। उस दिन तो पति बच्चे घर पर होंगे। उस दिन थोड़ी एक्सरसाइज भी कर ले। फिर पूरा दिन जो मन चाहे कर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। देख मैं भी वही करती हूंँ, परिणाम तुम्हारे सामने है ना!” कंधा उचकाते हुए अदा से मनीषा बोली।

“थैंक्स यार, मैं कल ही अपनी हेल्पर से बात करती हूंँ। ये समस्या तो सुलझा दी मेरी तूने, पर… एक बात थी जो जाने कितने दिनों या कह सालों से मेरे अंदर गांठ बनकर पल रही है। वो कहना चाहती हूंँ तुझसे। पहले वादा कर इस बात से हमारी दोस्ती पर कोई आंँच नहीं आएगी।”

“अरे तू इतनी फार्मल कबसे हो गई मेरी शिब्बू? बोल ना यार, बेहिचक बोल। एक मिनट! कहीं रितेश से संबंधित तो नहीं कुछ…”, मनीषा ने अपने दिमाग पर जोर डालते हुए कहा।

रितेश कालेज के दिनों में मनीषा का बाॅयफ्रेंड था। मनीषा निचली बिरादरी से ताल्लुक रखती थी जबकि रितेश और शिवानी एक बिरादरी से थे और एक दूसरे के परिवार में आना जाना भी था।

शिवानी ने कई दफा मनीषा को समझाया भी कि तू अपना समय बर्बाद कर रही है रितेश के पीछे। तेरे रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है। हम बहुत कट्टर बिरादरी से हैं, जहांँ इज्जत जान से भी ज्यादा प्यारी है। पर उसकी बात मनीषा हवा में उड़ा देती।

कुछ उम्र का दोष था तो कुछ इश्क के बुखार का असर। शिवानी चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही थी। एक दिन वही हुआ जिसका डर था। रितेश की सारी चिट्ठी पत्रियां, गिफ्ट सब मनीषा की माँ के हाथ लग गए।

क्या हुआ नहीं हुआ ये तो पता नहीं चला शिवानी को, पर उन्ही दिनों मनीषा गंभीर रूप से बीमार पड़ गई। शिवानी मिलने गई तो इशारों में मनीषा ने सारी बात बताई और एक चिट्ठी दी छुपाकर, रितेश के लिए।

शिवानी अपनी दोस्त का हमेशा भला चाहती थी। उसने मन ही मन निश्चय किया कि वो ये खत हरगिज रितेश को नहीं देगी। उसने कांपते हाथों से चिट्ठी को खोलकर पढ़ा।

मनीषा ने अपना सारा हाल बयान कर, अंत में लिखा था, “मैं मंगलवार की सुबह तुम्हारा अपने घर के बाहर इंतजार करूंँगी। अगर तुम आए तो ठीक, वरना फिर मुझे भूल जाना हमेशा के लिए…”

शिवानी ने वो चिट्ठी फाड़कर फेंक दी। रितेश से मिलने पर जब उसने मनीषा के बारे में पूछा तो शिवानी ने कह दिया कि उसके घर में पता चल गया है और उसने तुम्हें अपनी जिंदगी से दूर चले जाने को कहा है।

शिवानी ने देखा आठ दस दिन बाद सब सामान्य सा हो गया। सबकी जिंदगी पटरी पर आ गई है। समय के साथ शिवानी, मनीषा और रितेश की भी शादी हुई। संयोगवश रितेश ने लव मैरिज ही की और दूसरी बिरादरी में ही। ये जानकर शिवानी का मन भारी था कि कहीं वो विलेन तो नहीं बनी दोनों के सच्चे प्यार में?

अगर दोनों को मिलने दे देती तो शायद वे आज साथ में होते! आज वही मनीषा को बताकर वो अपने मन का बोझ हल्का करने वाली थी।

सारी बात उसने मनीषा को बताई और हाथ जोड़ लिए।

“यार शिब्बू तू आज तक उतनी ही भोली है जितनी तब थी। तुझे क्या लगा तुझसे चिट्ठी भेजने के बाद मैं प्यार में बौराई लड़की निश्चिंत हो जाऊंगी? या रितेश को तेरे झूठ का पता नहीं चलेगा? झूठ बोलते वक्त की तेरी घबराहट सारा सच बयान कर देती है शिवानी।

अब आगे की कहानी मुझसे सुन! मेरी मांँ ने मुझे रितेश को घर बुलाने कहा। दो घंटे बातचीत चली उसकी, मांँ की और मेरी। मांँ ने बहुत समझाया हम दोनों को और फिर कहा, “मैं इस छिछले प्यार पर भरोसा नहीं करती। अगर सच में प्यार है तो लायक बन कर आओ और हक से इसका हाथ मांगो। तब तुम इसको हर खुशी दे पाओगे। आज का प्यार निभाने में तुम सिर्फ इसे बदनामी दोगे और तुम्हारी बिरादरी वालों को पता चला तो सोचो इसकी जान पे भी बन सकती है। आगे तुम्हारी मर्जी।”

ये बात रितेश के कितने समझ आई, मुझे तो नहीं पता पर मैं पूरी तरह समझ गई और फिर मैंने सारा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया। फिर फुर्सत कहां मिली यार? कब रितेश को भूली, कब मम्मी-पापा ने शादी की कुछ भी पता नहीं चला।”

“तुम्हें पता है रितेश ने दूसरी बिरादरी में ही शादी की?”

“हाँ, एक बार मायके गई थी तो मार्केट मेंं मिला था। हम लोगों ने काॅफी शॉप में साथ काॅफी पी। मेरी तरह वो भी बहुत खुश है अपनी लाईफ में। पुरानी बातें यादकर हम खुब हँसे। मैनें उसे और उसने भी मुझे अपने परिवार के साथ अपने घर आने का निमंत्रण दिया। बस फिर हम निकल लिए।

वैसे भी आजकल किसी के पास वक्त ही कहांँ है यार किसी को याद करने का? मम्मी पापा को तो फोन करने तक का समय नही मिलता फिर भला और किसे याद करूँ? और तू दिल पर कोई बोझ मत रख हमारे बीच सिर्फ आकर्षण था शायद। बस वही आकर्षण जो उस उम्र में होता है।

प्यार अगर होता तो तू सोच, किसी के समझाने से समझ जाता? मेरी माँ समझदार थीं, उन्हें पता था कि क्या करना है। वो उन्होंंने किया।अब मेरे बेटे को ही देख ले नौ साल का है और कहता है मम्मा मैं अपनी क्लासमेट शीना से ही शादी करूंँगा। मैं कहती हूँ कोई नहीं बेटा माँ के पदचिन्हों पर चल रहा है। चल-चल, देख लूंँगी।”

मनीषा ने इतने नाटकीय अंदाज मे कहा कि दु:खी शिवानी ठहाके मारकर हँस पड़ी।

आज मनीषा की बातों ने शिवानी की ना केवल तन की समस्या का निदान किया था बल्कि मन में वर्षों से दबी ग्लानि से भी मुक्त करा दिया था।

मूल चित्र : Still from Short film Arranged Marriage/Content ka Keeda via YouTube

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