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बे-होश वैवाहिक रिश्ते की साइको थ्रिलर लगती है हसीन दिलरुबा…

“पागलपन की हद से ना गुजरे तो प्यार कैसा, होश में तो रिश्ते निभाए जाते हैं...” फिल्म हसीन दिलरुबा की कहानी इस संवाद के तरह ही उलझी हुई है।

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“पागलपन की हद से ना गुजरे तो प्यार कैसा, होश में तो रिश्ते निभाए जाते हैं…” फिल्म हसीं दिलरुबा की पूरी कहानी इस संवाद के तरह ही उलझी हुई है।

नेटफिल्क्स पर इस हफ्ते रिलीज हुई फिल्म हसीन दिलरुबा भारतीय रेलवे स्टेशन के स्टालों पर मिलने वाले उपन्यास साहित्य, जिसको कभी सस्ता तो कभी लुग्दी/पल्प साहित्य भी कहा जाता है, उसका बेहतरीन फिल्मी तर्जुमा कहा जाए तो गलत नहीं होगा। जो संवाद पूरी कहानी का मुख्य बिंदु है वह भी सस्ता तो और लुग्दी साहित्य में ही पढ़ने को मिलती है।

मसलन, “पागलपन की हद से ना गुजरे तो प्यार कैसा, होश में तो रिश्ते निभाए जाते हैं…” फिल्म की पूरी कहानी इस संवाद के तरह ही उलझी हुई है।

निर्देशक विनिल मैथ्यू ने जिस तरह से कहानी सुनाई है वह भी पल्प साहित्य के तरह ही है क्योंकि कहानी में लव स्टोरी, मर्डर मिस्ट्री और ड्रामा सब कुछ है जो जाहिर है मनोरंजन तो करती है। कहानी अपने पूरे किस्सागोई में बांधे रखती है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।

फिल्म की कहानी क्या है?

फिल्म की शुरुआत एक ऐसे सीन से होती है जहां एक महिला सड़क पर कुत्तों को खाना खिला रही है और अचानक उसे अपने घर में आग लगने की आवाज सुनाई देती है। वह अंदर भागती है, केवल अपने पति ऋषभ के टैटू वाले हाथ (उसके नाम का टैटू – रानी) को खोजने के लिए।

घर जर्जर है, उसका पति इस घटना के बाद नहीं रहता और मामले की जांच के लिए एक पुलिस दल (आदित्य श्रीवास्तव के साथ) आता है, जो महिला को ही अपराधी मानकर जांच शुरू करता है।

फिल्म हसीन दिलरुबा की कहानी शुरू यहीं से होती है पर कहानी जहां खत्म होती वहां से भी एक नई शुरूआत ही लगती है।

ज्वालापुर के इंजीनियर ऋषभ(विक्रांत मैसी) उर्फ रिशु और दिल्ली की रानी(तापसी पन्नू) धूमधाम से अरैंज शादी करते हैं। जल्दी हो दोनों को समझ में आ जाता है अपने पार्टनर में दोनों को जिस चीज  की तालाश है, वह उनको नहीं मिली है। फिर भी दोनों एक-दूसरे के साथ रिश्ता मज़बूत करने की कोशिश करते हैं लेकिन कमी तो रह जाती है।

एक दिन रिशु का मौसेरा भाई नील त्रिपाठी(हर्षवर्धन राठौर) आता है, जिसके बाद एक प्रेम त्रिकोण बनता है। इसके बाद कहानी में कुछ हादसे होते हैं और रिश्ते उलझते-सुलझते हैं और पूरी कहानी मर्डर मिस्ट्री में कैद होने लगती है। प्रेम है या कुछ और ये फिल्म के अंत में समझ आता है।

किसका मर्डर होता है, किसने मर्डर किया, कैसे मर्डर किया, किसकी ‘प्रेम कहानी’ अपने मंजिल तक पहुंच पाती है इसको जानने के लिए दो घंटे का समय देना पड़ेगा।

क्यों देखनी चाहिए हसीन दिलरुबा(Haseen Dillruba)

भले ही पूरी कहानी एक मर्डर मिस्ट्री ड्रामा जैसे लगती है। परंतु पूरी कहानी में साथ-साथ चलती है नए नवेले शादीशुदा पति-पत्नी के बीच प्रेम, अनबन और फिर एक ऐसी ‘मुहब्बत’ कि उसे देख आप असमंजस में पड़ जाएँ।

साथ ही साथ सबसे अच्छी बात जो पूरी कहानी में लगी वह यह कि लड़के-लड़की का अपना नज़रिया बिल्कुल साफ है कि उनको कैसा जीवन साथी चाहिए। भारतीय समाज में अधिकांश लड़के-लड़कियों को यह पता ही नहीं है कि उनको शादी क्यों और कैसे जीवनसाथी के साथ करनी है।

इस फिल्म में रानी, रिशु से खुल कर अपनी ‘ज़रूरतें’ ना पूरी होने की शिकायत करती है, जो शायद रिशु की मर्दांगी सह नहीं पाती। अपनी गलती की सज़ा मांगते हुए रानी जैसे रिशु के पैरों में इतना झुक जाती है कि उसको रिशु का टार्चर ही प्यार लगने लगता है।

सवाल ये भी आता है कि क्या रानी को ऐसा प्यार चाहिए था,गोया क्राइम थ्रिलर्स पढ़-पढ़ कर उसे अपने अच्छे-बुरे की पहचान ख़त्म हो गयी था। और रिशु भी मर्दानगी के नाम पर पता नहीं क्या कर रहा था।

कहीं न कहीं, हसीन दिलरुबा नई-नवेली शादीशुदा जोड़ियों को मशवरा भी देती है कि अपने वैवाहित रिश्ते को थोड़ा वक्त देना जरूरी है, एक-दूसरे पर भरोसा करना जरूरी है, साथ-ही-साथ एक दूसरे का सम्मान करना भी। लेकिन फिल्म के अंत तक आते-आते ये मशवरा आप भूल जाते हैं।

फिल्म हसीन दिलरुबा कहानी की एक खूबी है स्लो पिच, अपनी कहानी कहना वह भी बिना किसी शोर-गुल के। सारे कलाकार इस स्लो पिच को बनाए रखते हैं।

बीच में विक्रांत सेनी और हर्षवर्धन राठौर के बीच के कुछ दृश्य थोड़े तेज बनते हुए दिखते हैं। परंतु, वह गति लगातार कायम नहीं रहती है। फिल्म तेजी से एक कॉमेडी-स्पेस से एक मनोवैज्ञानिक-थ्रिलर स्पेस में बदल जाती है।

उस हिसाब से कहानी के कुछ पात्रों के चेहरे पर कई शेड्स आने और जाने चाहिए, परंतु हर शादी क्यों और कैसे जीवनसाथी बहुत बंधा हुआ सा है।

उनके पास समान्य रूप से अभिनय डिलेवर करने के अलावा कोई विकल्प दिखता नहीं है। निर्देशक विनिल मैथ्यू ने हर कलाकार से उतना ही काम लिया है जितने की कहानी को जरूरत है किसी को अधिक करने का मौका देना, कहानी के अपने उस मजे को खत्म कर नहीं करना चाहते है।

प्यार के नाम पर लोग क्या सब करते हैं, ये जानना चाहते हैं तो ज़रूर देखें फिल्म हसीन दिलरुबा, लेकिन अपने रिस्क पर…क्यूँकि ये तो प्यार नहीं है। हाँ, टॉक्सिसिटी ज़रूर है।

मूल चित्र : Still from Movie Haseen Dilruba, YouTube

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