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आज कित्तूर की रानी चैन्नम्मा का राजमहल और दूसरी इमारतें लोगों को उनसे प्रेरणा लेने को विवश करता है। बेशक उनको भुलाया नहीं जा सकता है।
आज कित्तूर में रानी चैन्नम्मा का राजमहल और दूसरी इमारतें लोगों को उनसे प्रेरणा लेने को विवश करता है। उनकी वीरता और साहस की प्रेरणादायक कहानी को कर्नाटका की सीमा से बाहर निकालने की आवश्यकता है।
बाल सुलभ के दिनों में समान्य ज्ञान के किताबों में पहली महिला शासक रजिया सुल्तान और “खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी” इन बातों को जन्मघुट्टी की तरह रटा दिए गए कि चंचल मन ने यह सवाल ही नहीं किया कि क्या अपने देश में कोई और महिला प्रशासक या वीर महिला हुई या नहीं, जबकि इतिहास में कई महिलाओं का नाम दर्ज है जिनके बहादुरी और सूझ-बुझ न केवल बेमिसाल थी बल्कि उनकी सोच उस दौर के कई प्रशासक राजा-महाराजों से आगे थी।
कित्तूर की रानी चेन्नम्मा झांसी की रानी से पहले कमोबेश 56 साल पहले ही ब्रिटिश सरकार से लोहा लेने वाली महिलाओं में एक से रही है। पर दुर्भाग्य यह है कि आज रानी चेन्नम्मा को ही कर्नाटक की लक्ष्मीबाई के नाम से पुकारा जाता है।
कर्नाटक के राजपरिवार के सहयोगी के घर 23 अक्टूबर 1778 को चेन्नम्मा का जन्म हुआ। नादान चैन्नम्मा को तलवारबाजी, घुड़सवारी और युद्ध कलाओं का शौक राज परिवार के बच्चों को देख कर हुआ। राजपरिवार के सहयोगी होने के कारण चेन्नम्मा को इन शौकों को पूरा करने का मौका भी मिला। उन्होंने बड़ी ही शिद्दत से युद्धकौशल में महारत हासिल की।
बाद में यही यद्ध के कला-कौशल और योग्यता के कारण उनका विवाह राज्य के देसाई परिवार के राजा मल्लासर्ज से हुआ। और इतिहास में उनका नाम अमर करने में उनका योगदान रहा। चैन्नम्मा का वैवाहिक जीवन अधिक दिनों तक रह नहीं पाया। उनके पति और फिर बाद में पुत्र के मृत्यु ने उनके जीवन के साथ-साथ कित्तुर राजगद्दी के भविष्य को भी संकट में डाल दिया। कित्तुर राजगद्दी के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए रानी चेन्नम्मा ने एक पुत्र गोद लिया।
उस समय तक भारत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिन आ चुका था। गर्वनर लार्ड डलहौजी ने निषेध नीति की घोषणा कर रखी थी। जिसके अनुसार जिन राजवंशों में गद्दी पर बैठने के लिए वारिस नहीं होता था, उन्हें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी अपने नियंत्रण में ले लेती थी।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजाओं को अपदस्थ कर राज्य हड़पने के लिए इस नीति का निमार्ण किया था। इसी नीति ने रानी चैन्नम्मा को और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को इतिहास में अमर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन रानी चैन्नम्मा का इतिहास दक्षिण भारत के लोगों तक ही सीमित होकर रह गया है।
रानी चैन्नम्मा के दौर में कित्तुर राज-घराने के पास पंद्रह लाख के आस-पास धन-संपदा और करोड़ों के बहुमूल्य आभूषण और जेवरात थे, जिसको ब्रिटिश शासक अपने हक में करना चाहते थे। रानी चैन्नम्मा और ईस्ट इंडिया कंपनी की महत्वकांक्षा को जब किसी भी तरीके से नहीं टाला जा सका, तब रानी चैन्नम्मा ने सेना की गठन की तैयारी शुरू कर दी।
दोनों की सेनाएं आमने-सामने आ डटीं। पहली जंग में रानी चैन्नम्मा को सफलता भी मिली पर रानी चैन्नम्मा के लिए इस युद्द से उबर पाना थोड़ा मुश्किल भरा था। कुछ मोर्चों पर रानी चैन्नम्मा के युद्द कौशल ने ईस्ट इंडिया कंपनी को धूल चटा दी। जहां उन्हें समझौते के लिए राजी होना पड़ा।
परंतु, कुछ मोर्चों पर जंग अधिक लंबा खिचता चला गया। सीमित संसाधनों से इस मोर्चे पर फतह पाना मुश्किल था। जिसके कारण रानी चेन्नम्मा को हार का सामना करना पड़ा। बेल्होगल के किले में कैद के दौरान 21 फरवरी 1829 को उन्होंने अपनी आखरी सांस ली।
इस युद्ध में रानी चैन्नम्मा को स्थानीय लोगों की काफी सहायता मिली। आम लोगों ने रानी चैन्नम्मा का करूणामय और युद्ध में रौद्र रूप अदम्य साहस भी देखा, जो आम लोगों के जेहन में विशिष्ट छाप छोड़ गया।
रानी चैन्नम्मा की यही स्मृति आज भी कर्नाटक के लोगों में नायिका के छवि की तरह स्थापित है। उनकी याद में 22 से 24 अक्टूबर को हर साल कित्तूर में उत्सव मनाया जाता है। दिल्ली पार्लियामेंट हाउस में भी उनकी मूर्ति उनके सम्मान में स्थापित की गई है।
आज कित्तूर में रानी चैन्नम्मा का राजमहल और दूसरी इमारतें लोगों को उनसे प्रेरणा लेने को विवश करता है। बेशक उनको भुलाया नहीं जा सकता है। उनकी वीरता और साहस की प्रेरणादायक कहानी को राज्यों के सीमाओं से बाहर निकालने की आवश्यकता अवश्य है। जो यह प्रेरणा दे कि कोई भी रानी चैन्नम्मा की तरह वीर, साहसी और कई कलाओं में निपुर्ण हो सकता है। महिला होना किसी भी क्षेत्र में कोई बाध्यता पैदा नहीं करता चाहे वह युद्ध का मैदान हीं क्यों ना हो।
इमेज सोर्स: Wikipedia
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