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उसके सहने की भी आखिर कोई सीमा थी…

पति को भी समझाती थी पर शक्की मन नीरा पर विश्वास नहीं कर पाता था और फिर यही शारीरिक हिंसा और शक उसके मानसिक अवसाद का कारण बन गई।

पति को भी समझाती थी पर शक्की मन नीरा पर विश्वास नहीं कर पाता था और फिर यही शारीरिक हिंसा और शक उसके मानसिक अवसाद का कारण बन गई।

शांत बैठी थी वो इस समय। देख के नहीं लगता था कि ये भोला-भाला चेहरा उन्मादी है। लगता था शांत, मधुर स्मित लिए एक लुभावना चेहरा है। पिछले साल मेरे क्लिनिक में अपने पति के साथ आई थी।

उस समय भी ऐसी ही शांत थी पर मैंने उसकी आँखों का अवसाद पढ़ लिया। पति को बाहर भेज उसका इतिहास पूछना चाहा पर वो बार-बार कहती रही कि उसके जीवन में सब ठीक है। दूसरी बार जब वो आई, तो मेरे ये कहने पर कि मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा, वो कुछ आशांविन्त हुई। कुछ टुकड़ों-टुकड़ों में अपनी आप बीती बताई।

सोलह साल की अबोध उम्र में उसकी शादी, उससे पंद्रह बरस बड़े लड़के से हुई। एक अल्हड़ उम्र तो दूसरा परिपक्व। एक उफनती नदी, तो दूसरा गंभीर किनारा। मतभेद बढ़ते गये और उनके साथ ही उसकी झोली दो सुन्दर फूलों से भर गई।

माँ बनने के बाद नीरा में गंभीरता आ गई। पति को लगा अब सब ठीक हो गया, पर चंचल मन कब बंध पाया? नीरा फिर अपने पुराने रूप में लौट आई। अड़ोस-पड़ोस के हमउम्र देवर, ननदों के साथ उसका मन खूब लगता था। घर का अनुशासन उसके अरमानों का गला घोंट देता था। पति को भी समझाती थी, पर शक्की मन, नीरा पर विश्वास नहीं कर पाता था। लिहाजा शारीरिक हिंसा का शिकार होती थी। यहीं शारीरिक हिंसा और शक उसके मानसिक अवसाद का कारण बन गई।

दिन भर बकझक करने वाली नीरा शांत होने लगी और सबसे कट गई। फिर एक दिन अचानक नीरा को दीवारों, तस्वीरों से बात करते देखा जाने लगा। पहले पति ने ध्यान नहीं दिया, फिर एक दिन छत से कूदने की कोशिश में वो गिर गई। तब पति को भी लगा कुछ बात तो है। तब वह उसे मेरे पास ले आया।

नीरा का इलाज करते-करते कहीं मैं उसके पति को समझाता गया कि उसे प्यार और अपनेपन की ज़रूरत है। धीरे-धीरे पति की शक की प्रवृति को मैं दूर करने में कामयाब रहा। पता चला कि वो नीरा को प्यार करता था परन्तु उम्र के अंतर ने उसके असुरक्षित मन को शक्की बना दिया।

अब जब उसे समझ में आ गया कि प्यार में उम्र बाधक नहीं, तो वो सुधर गया। नीरा भी अब धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप में लौट रही पर उसकी निश्छल हँसी मैं नहीं लौटा पाया। शायद सहने की इक सीमा होती है। रबड़ को खींचो तो खींच जाता है, पर इक सीमा बाद वो टूट जाता है। गांठ लगा हम काम तो चला लेते पर उसका आकार बिगड़ ही जाता है।

मूल चित्र : Arif Khan via Pexels

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