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‘बड़े हमेशा ये ही कहते हैं’, ज़रुरत है तो बस इस प्यार को समझने की

हमें लगता है, 'बड़े हमेशा ये ही कहते हैं', पर ये ही प्यार है। उन्हें भी बच्चों के साथ समय बिताना अच्छा लगता है। उनका समय बच्चों की बातों ही में बीतता है।

हमें लगता है, ‘बड़े हमेशा ये ही कहते हैं’, पर ये ही प्यार है। उन्हें भी बच्चों के साथ समय बिताना अच्छा लगता है। उनका समय बच्चों की बातों ही में बीतता है।

“सोहम, तूने ठीक से खाया या नहीं? हॉस्टल में उल्टा-पुल्टा मत खा लेना। यहाँ तो मैं थी डाँट कर खाना खिला देती थी, वहाँ फोन पर तो कुछ पता ही नहीं चलता। समय से खाया या नहीं”, मधुमीता ने सोहम को डाँटते हुए कहा।

“तुम उसे अभी तक बच्चा ही समझो, सब मिलता है वहाँ”, राजेश ने फोन लेते हुए कहा।  ‌

“और सब ठीक है सोहम? तेरी मम्मी को सिवाय डाँटने के कोई काम नहीं।”

“अच्छा आप भी! समझा नहीं सकते और मुझे ही सुनाओगे”, मधुमीता ने थोड़े गुस्से की आवाज़ में बोला और मुस्करा दी।

सोहम ने कहा, “अरे पापा ये कोई नई बात नहीं, पता है आदत मम्मी की।”

“मधुमीता सुना तुमने?” राजेश बोले और दोनों मुस्कुरा दिये। “अच्छा तुम अपना ध्यान रखना फोन करते रहना।”

कुछ दिन बाद मधुमीता को सोहम ने फोन किया, “माँ बड़ा मन कर रहा है आज, आपके हाथों से बने कढ़ी-चावल खाने का।”

मधुमीता जानबुझ मुस्कुराती हुई बोली, “अच्छा सब तो मिलता है हॉस्टल में।”

“अरे वो तो शुरू की बात थी, अब बोर हो गया यहाँ। भंरवा भिंडी और कढ़ी-चावल। माँ मन कर रहा है जल्दी आ जाऊँ घर।”

“हाँ सोहम, मेरा भी मन वही है। तेरी पसंद का कुछ नहीं बनाने का मन करता तेरे बिना। मुँह में कहाँ जायेगा निवाला?” गला भर आया मधुमीता का।

सोहम समझ गया, “रो रही हो? ओहो माँ! तुम रोने लगीं। मन की बात भी बताना मुश्किल है। चुप हो जाओ। रोओगी तो मैं आ जाऊंगा।”

“मैं कहाँ रो रही हूँ? आँसू तो आ ही जाते हैं।”

तभी डोर बेल्ल बजी, “रूको ज़रा कोई है।”

दरवाज़ा खोलते ही!

“मांआआआ!”

“अरे तू! तू कैसे? रूको अभी बताती हूँ, परेशान करता है?”

“हाहाहा! माँ देखा सरप्राइज! इलेक्शन है तो कुछ दिन की छुट्टियां हैं। तीन दिन हूँ घर आपके साथ।”

“बता क्या खायेगा? कढ़ी में समय लगेगा, शाम को बनाती हूँ। अभी बता?”

“आलू की कचौड़ी बना दो। मज़ेदार चटपटी। मैं जरा नहा लूँ।”

आलू की कचौड़ी खाते हुए सोहम बोला, “वाह माँ! मजा आ गया। पापा मेरी मम्मी के हाथ में जादू है।”

“अच्छा माँ, सब दोस्तों से मिल आऊँ?”

“हाँ, जल्दी आना।”

“क्या मधु! आज पैरों का दर्द कहाँ गया?”

“बेटे की खुशी में भूल गयी।” दोनों हंसने लगे।

“सच, रौनक बच्चों से ही है घर की।”

“कढ़ी बन भी गई। सोहम आया या नहीं? कितनी देर लगा दी?”

सोहम ने आवाज दी, “मैं आ गया मम्मी।”

“चल खाना लगा दूं।”

“ओह! मम्मी मैं भूल गया आपको फोन करना। सबके साथ चाट खा ली। रात को भूख लगी, तो खा लूँगा। अभी पेट भरा है। परेशान मत हो खा लूँगा।”

मधुमीता और राजेश दोनो ने अकेले खा लिया।

सुबह हुई, “सोहम शाही टोस्ट बनाया है, आजा जल्दी।”

“ओ मम्मी, गर्म कैसे खाऊं? एक दे दो बस, खाता हुआ चला गया।”

“देखा जी, आया था माँ के हाथ से बने खाने के लिये और समय दोस्तों का।”

“अरे मम्मी! ये दोस्त मानते ही नहीं। दोस्त नीचे आये हैं, बुला रहे हैं। आई लव यू मम्मी!”

“जल्दी आना बेटा।”

“माँ शाम को आऊंगा। मैच खेलने जा रहे हैं।”

“फोन करना।”

“हाँ हाँ, फोन करूंगा।”

“आ गया तू ? बड़े समय से आया?” गुस्से में मधुमीता बोली।

“अरे मम्मी निकला तो समय से था, पर रास्ते में मनु अपने घर ले गया, आंटी-अंकल से मिलने। भूख लगी है। क्या बनाया है?”

“वाह मम्मी! पनीर मेरा मन-पसंद। मम्मी वाह! मज़ा आ गया!”

“और मुझको सुकुन”, मधुमीता ने प्यार से पीठ थपथपा दी।

राजेश मुस्कुरा रहे थे, “माँ का प्यार है सोहम।”

“और पापा का प्यार सोहम। कुछ कह नहीं पाते, पर बस तेरी ही बात करते हैं”, मधुमीता मुस्कुराती हुई बोली।

“हाँ पता है माँ, मैं भी तो दौड़ कर आ जाता हूँ।”

“बता कर आया कर, पता होना चाहिए वहाँ से कब चला?”

“अरे पापा! अब छोटा नहीं हूँ। अच्छा आप दोनों सुबह उठा देना। जल्दी जाना है।”

“अरे पता ही नहीं चला तीन दिन का।”

“आ जाऊंगा जल्दी माँ।”

“माता-पिता इंतजार करते रहते हैं। उनकी बातें बच्चों से शुरू, बच्चों पर खत्म। अब हॉस्टल, फिर नौकरी, फिर शादी, बस मेहमान हो गये बच्चे।”

“माँ!” सोहम गले लग जाते हैं, “पता है माँ, साथ ही रहूँगा। देख लेना। साथ रखूँगा अपने।”

और कुछ सालों में शादी हो गई। दोनों नौकरीपेशा थे, सुबह निकलते, रात हो जाती आने में। आकर खाना कमरे मे ही मंगा लेते, थकान की वजह से। कभी बाहर खाना खा कर आते।

राजेश ने कहा, “बच्चो से बातें ही नहीं होतीं मधुमीता।”

“हाँ जी, बस रात को देर से आते हैं, थकान मे होते होगें। मैं ही नहीं कहती कि पापा से मिल लो। आप भी सोने वाले होते हो उस समय । ये सोच कर रात में परेशान नहीं करते। सुबह जल्दी रहती है नौकरी पर जाने की बस इसलिए। आजकल बच्चे व्यस्त हैं, क्या करें?”

शनिवार-इतवार माँ-पापा को कहीं ले जाने को कहते, तो दोनों कहते, “भाई तुम दोनों की उम्र है, तुम घूमो।” या, “रात तक ही आओगे, हम तो थक जाएंगे। तुम दोनों जाओ।”

दोनों बहुत कहते, पर पता था मम्मी-पापा सही हैं। वो कभी पापा-मम्मी जहाँ आसानी से जाते, वहाँ घुमा लाते या खाने का कुछ पैक करा कर ले आते।

ये ही चलता है जिंदगी में। सभी नौकरी वालों की ये ही कहानी है। व्यस्त ज़िंदगी से शिकायत नहीं। बस थोड़ा समय सब साथ बैठें। बड़ों की सब बातें वही होती हैं। आपको लगता, ‘हमेशा ये ही कहते हैं’, पर ये ही प्यार है। उन्हें भी बच्चों के साथ समय बिताना अच्छा लगता है। उनकी सुबह और शाम बच्चों की बातों में ही बीतती है। इंतज़ार रहता है बच्चे बताएँ उनके जीवन में क्या चल रहा है?

बड़ों का आर्शीवाद ऐसी दुआ है जो दिखाई नहीं देती, पर समय आने पर ज़रूर महसूस होती है। कुछ दें तो उन्हें समय दें, प्यार दें। सोच मे अंतर ज़रूर होगा, आजकल के हिसाब से नहीं सोच पाते होगें, पर अपनी बड़ी, छोटी बातें उन्हें जरूर बताएं। छोटी-छोटी खुशियों को उनके साथ समेटें। उनकी उपस्थिति और रौनक का पता उनके जाने के बाद ही महसूस होगा।

मूल चित्र : Pixabay

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