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बहुएं या कठपुतलियां? पूछती हैं ये बंदिशों की बेडियाँ …

फैशन ही खत्म नहीं होते तुम्हारे! कोई पिक्चर-विक्चर नहीं जाओगे तुम, आज बहुत काम है। कोफ्ते बनाने को बोल रहे हैं तुम्हारे पापा और वो तो आज बनेंगे ही। 

फैशन ही खत्म नहीं होते तुम्हारे! कोई पिक्चर-विक्चर नहीं जाओगे तुम, आज बहुत काम है। कोफ्ते बनाने को बोल रहे हैं तुम्हारे पापा और वो तो आज ही बनेंगे। 

राम प्रसाद और साधना की दो बहुऐंं थीं। रामप्रसाद सरल स्वभाव के थे, पर उनकी पत्नी साधना के अपने नियम-कानून थे। साधना को अपनी बहू को काम करवाना अच्छे से आता था। दोनों बहुओं की कोई अपनी मर्जी नहीं थी। जिस समय जो कह दिया वह पत्थर की लकीर हो जाता था।

दोनो बहुएँ घबराहट में कुछ नहीं कह पाती थीं।

“मंजु..”, साधना ने आवाज दी।

“जी मम्मी जी।”

“आज गेहूँ साफ होंगे याद है ना?”

“जी मम्मी जी, कर लेंगे शाम को।”

“नहीं! दोपहर को करना।”

“वो मम्मी जी, दोपहर को आज रूही को पढ़ाना था मुझे। कल टेस्ट है। रात को जल्दी सो जाती है”, मंजु ने अपनी सास से कहा।

“देखो बहु! शाम को बहुत काम है, चाय शाम की बनानी है, रात को खाने की तैयारी। दोपहर को ही करना।” मंजु मन मसोस कर रह गयी और जल्दी से काम करने लगी ताकि थोड़ा भी समय मिले तो रूही को समझा दे।

“दीदी आप रूही को पढ़ा लिजिए, बाकि मैं कर लूंगी”, मीनु ने कहा, जो मंजु की देवरानी थी। दोनों एक दूसरे की परेशानी समझती थीं।

“मिलकर करेंगे तो जल्दी हो जायेगा।”

छोटे बेटे ने अगले दिन मीनु से पूछा, “पिक्चर चलोगी? मम्मी से पूछ लेना।”

“मम्मी, मीनु को बाजार से कुछ काम था तो सोचा वो भी कर लेगें और पिक्चर भी देख आएंगे।”

“ऐसा क्या काम है? क्यूँ मीनु?”

“जी पार्लर जाना था।”

“ओहो! अभी तो गयी थी कुछ दिन पहले। फैशन ही खत्म नहीं होते तुम्हारे। हो आओ। पर पिक्चर-विक्चर नहीं, आज बहुत काम है। कोफ्ते बनाने को बोल रहे हैं तुम्हारे पापा।”

मंजु ने कहा, “मैं बना लूंगी, मीनु को जाने दिजिये।”

“तुम चुप रहो। आज नहीं तो नहीं।”

छोटा बेटा भी माँ के सामने नहीं बोल पाया। मीनु उदास हो गयी। जानती थी दोनों बेटों की आवाज नहीं निकलती माँ-पिता के सामने।

अगले दिन गाँव से सास रहने आ गयी। अब तो साधना के सिर पर पल्लु आ गया। सासु जी के पैर दबाती तेल लगाकर, कभी सिर की मालिश करती। सासु जी की एक दमदार आवाज में साधना वहीं होती और मंजु और मीनु मुहँ मे पल्लु दबाए ख़ूब हँसती।

“देखो जीजी, अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे। हमें बहुत परेशान करती हैं। अब कैसी हमारी तरह कठपुतली बन गयीं।”

उधर साधना अपनी बहुओं से बुराई करती, “ना जाने क्या हो गया अम्मा जी को गाँव से आके? पहले तो कभी इतना रौब नहीं दिखाती थीं। इस बार देखो फिरकी की तरह मुझे नचा रही हैं। ना जाने कब जाएंगी?” और राम प्रसाद जी से सारी रात बुराई करती, “अम्मा जी ने तो एक मिनट बैठने नहीं दिया बहुओं की हाथ से बना भाता नहीं। मुझे ही कहती हैं कि तू बना। बताओ जी जब से दोनो बहुएं आयीं तब से मैने कहाँ रसोई में कदम रखा है?”

“ठीक तो कह रही है अम्मा। तू स्वादिष्ट खाना बनाती है, इसलिए तुझसे बनवा रही है।”

“ओहो! जी दोनो बहुएं भी बहुत अच्छा बनाती हैं। पर उनकी तारीफ कर दी तो सिर पर चढ़ जाएँगी। कब को कह रही है जाने को गाँव?”

“अरे पगला गयी है आये हुए चार दिन नहीं हुए। जाने का पूछूँ?” साधना मुँह बनाकर उठ गयी। पहले तो ऐसा व्यवहार नहीं करती थी। अब तो बदल ही गयी अम्मा जी।

अम्मा जी बहुओं को खूब दुलार करती। पोतों को कहती, ‘जाओ घूमा आओ बहुओं को।मैं साधना मिलकर कर लेगें।’

साधना को अंदर-अंदर दिल में खुब गुस्सा भरा था। पर कुछ नहीं बोल पाई। माँ के खिलाफ एक शब्द साधना के बरदाश्त नही थे रामप्रसाद को। मंजु और मीनु की खुशी का ठिकाना नहीं था, सासु माँ को ऐसे बहु बने देखकर। साधना झुंझलाहट में सारा गुस्सा मंजु और मीनु पर निकालती।

एक दिन सुबह से ही साधना जी को अम्मा जी ने साग बनाने, फिर तेल मालिश और फिर कुछ साड़ी पकड़ा दी “फॉल लगा देना शाम तक इन पर और मुझे तेरी बहुओं के हाथ का काम नहीं पसंद। तुझे ही करना है।”

साधना जोर से बोली, “इंसान हूँ मैं भी। थकती हूँ। कठपुतली बना कर रख दिया, ये कर वो कर।”

“क्या बोली?” अम्मा जी साधना की बड़बड़ाहट सुन कर तुरंत बोली। घर के सभी इक्कठे हो गये, तेज आवाज सुनकर अम्मा की।

“और जो तूने दो साल से दोनों बहुओं को कठपुतली बनाया? मशीन की तरह उनसे काम लेती है? वो दोनों नहीं थकती होगीं क्या?”

“बहु, जब तू आई गाँव ब्याह करके, हाथों-हाथों पर रखा मैंने। एक साल के भीतर ही तूने राम प्रसाद के साथ जाने को कहा बम्बई। मैं तुरंत मान गयी। तब तक शादी के साल भर के त्यौहार भी नहीं हुए थे। सोचा बेटे का ध्यान रखना भी ज़रूरी है। खाना घर का मिलेगा। तू कभी नहीं आई फिर गाँव रहने। साल में एक बार आती, वो भी रामप्रसाद के साथ ही चार-पाँच दिन रहकर लौट जाती। मैंने आराम का कभी नहीं सोचा।”

“बम्बई मैं गाँव से नहीं आना चाहती थी। यहाँ का जीवन, खाना-पीना अलग है हमसे। फोन पर रामप्रसाद बताता था, ‘दोनो बहुएं प्रेम से रहती हैं। जिठानी-देवरानी नहीं, बहन-बहन जैसी। पर साधना का रौब बढ़ता जा रहा है। मैं कभी कुछ कह ही नहीं पाया साधना को। अम्मा क्या करूँ खुशहाल घर बेकार कर रखा है। हिटलर की तरह रखती है बहुओं को।’ तब सोचा कि एक बार तुझे अपने तरीके से समझाया जाए। एक हफ्ता नहीं हुआ, तू मेरे आने से परेशान? सोच जिन्हें तूने दो साल से कठपुतलियों की तरह नचाया है, क्या वो तेरे साथ रहना चाहती होगीं? एक औरत ही औरत का दुःख समझती है। तू तो मास्टरनी बन गयी इनकी।”

साधना, बहु-बेटों, पति के सामने ये सब सुनकर नज़रें झुकाऐ खड़ी रही। आगे बढ़कर अम्मा के पैर में बैठ गयी, “अम्मा जी माफ कर दो मुझे। मैंने बहुओं को बेटीयाँ बनाने के बजाए कठपुतलियाँ बना दिया। आज मेरी आँखे खोल दी आपने। आज से दोनो मेरी बेटीयाँ बनकर रहेगी। मंजु, मीनु  तुम दोनों से मैं नज़रें नहीं मिला पा रही। अपने किये पर शर्मिंदा हूँ।”

“चलो भाई अब सब ठीक हो गया। अब साधना के हाथ से बनी चाय पिओगी अम्मा। बहुओं की तुम्हें भाती नहीं।”

अम्मा मुस्कुराई, “अरे ये तो इस सास को सबक के लिए करना पड़ा। साधना तू बैठ बहुत ज्यादा कठिन परीक्षा हो गई तेरी। ये अब कठपुतलियाँ नहीं, अब बेटियाँ बनकर ये दोनों चाय के साथ गर्म-गर्म पकौड़े भी बनाएंगी।”

सब हँसने लगे।

मूल चित्र : Canva

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