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मैं बच्ची बन जाती हूं…

सुने पड़े आँगन की बगिया महक जाती हैं, तेरे आते ही घर में रौनक सी आ जाती हैं, सुनकर माँ-पापा की इन बातों को, उनसे लिपट जाती हूं।

सुने पड़े आँगन की बगिया महक जाती हैं, तेरे आते ही घर में रौनक सी आ जाती हैं, सुनकर माँ-पापा की इन बातों को, उनसे लिपट जाती हूं।

हाँ! हूं तो माँ मैं भी,
पर अपना मातृत्व भूल जाती हूं।
पाकर माँ-पापा का प्यार,
मैं फिर बच्ची बन जाती हूं।

हाँ है कई जिम्मेदारियाँ मुझ पर भी,
किसी की भाभी, पत्नी और बहू कहलाती हूं।
पर जब पाती हूँ मायके में माँ-पापा का दुलार,
मैं फिर बच्ची बन जाती हूं।

सुने पड़े आँगन की बगिया महक जाती हैं,
तेरे आते ही घर में रौनक सी आ जाती हैं,
सुनकर माँ-पापा की इन बातों को,
उनसे लिपट जाती हूं।
मैं फिर बच्ची बन जाती हूं।

मिलते ही कामों से फुर्सत माँ पास मेरे बैठ जाती हैं,
रखकर गोद में मेरा सिर उंगलियों से अपनी सहलाती है।
नखरे दिखाती मैं हर रोज अपनी फरमाइशें गिनवाती हूँ,
हाँ मैं फिर बच्ची बन जाती हूं।

आज-कल पापा ऑफिस से जल्दी आ जाते हैं,
खाने को रोज ही कुछ न कुछ लाते हैं।
पाकर उनके आने की आहट,
दरवाज़े की और दौड़ जाती हूं,
हाँ मैं फिर बच्ची बन जाती हूं।

“जल्दी आना फिर से बेटा” पापा बार-बार दोहराते हैं,
पलक झपकते ही गिनती के दिन निकल जाते हैं,
बिखरे सामान को समेटती मैं,
उनकी आंखें पढ़ जाती हूं,
हाँ मैं फिर बच्ची बन जाती हूं।

बस कुछ दिनों की छुट्टियों में,
साल भर की यादों को समेट ले आती हूं।
आते ही ससुराल में,
मैं फिर भाभी, पत्नी और बहु बन जाती हूं।

मूल चित्र : via youtube

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Babita Kushwaha

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