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अगर आपको खुद को फेमिनिस्ट कहने में शर्म आती है…

फेमिनिज्म कभी भी महिलाओं को समाज से अलग-थलग रखकर देखने और हर क्षेत्र में पुरुषों के खिलाफ उन्हें प्रोत्साहित करने का दर्शन नहीं रहा।

फेमिनिज्म कभी भी महिलाओं को समाज से अलग-थलग रखकर देखने और हर क्षेत्र में पुरुषों के खिलाफ उन्हें प्रोत्साहित करने का दर्शन नहीं रहा।

कभी लिपस्टिक, कभी बड़ी बिंदी, कभी कपड़े तो कभी तो कभी खुद के या कभी दूसरी महिलाओं के खुदमुख्तारी के लिए कही गई कोई बात आजकल सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर आते ही उस पर “फेमिनिस्ट” का टैग चस्पा कर दिया जाता है। जबकि कई दफा स्टेट्स लिखने वाले या शेयर करने वालों का ही नहीं. खुद का लिपिस्टिक, बड़ी बिंदी या कपड़े पहने वालों का भी  वास्ता “फेमनिज्म” के ककहरे से भी नहीं होता है। यह बदलते दौर में स्वयं की सहज़ अभिव्यक्ति भर होती है।

कभी वह  मात्र एक तस्वीर या कभी  किसी विशेष मुद्दे पर उसका अपना पक्ष भर होता है जिसका एक पक्ष फेमिनिस्ट विचार के तरफ झुका हुआ होता है। संवेदना के स्तर पर या समझदारी के स्तर पर भी वह महिलाओं के पक्ष में अपनी रायशुमारी में बस शामिल हुई भीड़ का हिस्सा होते हैं या फिर फेमनिस्ट साहित्य को पढ़कर या फेमनिस्ट कही जा रही फिल्मों को देखकर अति उत्साह में अपनी राय बना लेते हैं।

फेमिनिज्म के मूल विचार बन-मस्का-चाय नहीं है जिसको दो-तीन घूट में गटक लिया जाए। न ही फेमिनिज्म कोई नल्ली निहारी या हैदराबादी बिरयानी की रेसिपी है जिसको समझने के लिए किताबों में डूब कर समझने की कोशिश की जाए।

कुछ कमेट्स तो यहां तक कह दिए जाते है कि आज के फेमिनिस्ट महिलाओं से पहले की फेमिनिस्ट महिलाएं बेहतर थीं। जाहिर है भारत में नारीवादी आंदोलन के इतिहास के उतार-चढ़ाव और नारीवादी चेतना के विस्तार, स्वयं महिलाओं के बीच इसकी स्वीकृति को लेकर जो सहमति-असहमति रही थी, इसके बारे में वे कुछ नहीं जानते हैं।

फेमिनिज्म के से भी उनका कोई रिश्ता नहीं है।

सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि फेमिनिज्म है क्या और इस तरह की बातें फेमिनिज्म के बारे में क्यों फैलाई जाती है? दूसरे सवाल का जवाब इतना भर कि सार्वजनिक जगहों और क्षेत्रों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी या मौजूदगी पुरुषों को अनुशासित और नियंत्रित करने की  मांग करता है, कभी-कभी संवेदनशील और लोकतांत्रिक होने की मांग भी करता है। फेमिनिज्म के बारे में फैलाई गई तमाम बातें, महिलाओं को नियंत्रित और अनुशासित करने का प्रयास है।

अब पहला सवाल… वास्तव में क्या है फेमिनिज्म?

क्या है फेमिनिज्म?

फेमिनिज्म समानता, स्वतंत्रता और मानवता पर खड़ा किया गया सामाजिक व्यवहार है जो हर तरह के वर्चस्ववादी मूल्य जो जाति, धर्म, वर्ग, लिंग, भाषा, रंग, वेशभूषा, खान-पान के आधार पर भी तय होती है, उसका विरोध करती है। इन सभी आधार पर ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, या अच्छा-बुरा की जो बायनरी बनाई जाती है उसमें समानता, स्वतंत्रता और मानवता के मूल्य लाने का प्रयास फेमिनिज्म का रहा है। समतामूल्क घर-परिवार, और देश बनाने का अल्हदा सपना फेमिनिज्म कर रहा है।

फेमिनिज्म कभी भी महिलाओं को समाज से अलग-थलग रखकर देखने और हर क्षेत्र में पुरुषों के खिलाफ उन्हें प्रोत्साहित करने का दर्शन नहीं रहा। यह तो एक समग्र नज़रिया है जो संवेदनशील नागरिक में पहले शोषित और दमित महिलाओं के प्रति सहानुभूति और मानवीय नज़रिया विकसित करने की कोशिश है, जो अपने पूरे समाज के शोषित और प्रवंचित तबकों को समझने की क्षमता देता है। साथ ही उनके प्रति एक कर्मठ दायित्वबोध जगाता है।

फेमिनिज्म आयातित नहीं, भारतीय महिलाओं के स्त्री चेतना है

फेमिनिज्म के बारे में यह राय बहुत जोर-शोर से फैलाई गई है कि यह बाहर से आयातित विमर्श है हमारे देश में इस तरह की बहसे कभी नहीं थी। वहां एक महत्वपूर्ण सवाल यह किया जाना चाहिए जब शिक्षा के अधिकार ही महिलाओं को 19वीं शताब्दी के मध्य में मिल सका, वह भी गिनी-चुनी महिलाओं तक ही सीमित था। आम भारतीय महिलाओं तक शिक्षा का अधिकार अभी तक नहीं पहुंच सका है। फिर वह अपने हक में विमर्श कैसे खड़ा कर सकती थीं?

शिक्षित होने के बाद जब महिलाओं ने अपने सवालों को पुर्नपरिभाषित करना शुरू किया तब उनकी स्त्री चेतना ने वैचारकी की जमीन मजबूत की।

भारतीय महिलाओं के सामाजिक स्थिति पर सबसे पहले  1927 में विदेशी महिला कैथरीन मैयों की “मदर इंडिया” प्रकाशित हो चुकी थी जिसपर भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया था।

इस किताब ने दुनिया के स्तर पर भारतीय महिलाओं की सामाजिक-सास्कृतिक-आर्थिक स्थिति को सतह पर ला दिया था। उसके काफी बाद भारतीय महिलाओं के चेतना के सवाल को महादेवी वर्मा ने श्रृखला के कड़ियों में अभिव्यक्त कर दिया था। वह भी फेमिनिज्म की सबसे अधिक पढ़े जाने वाली किताब द सेकंड सेक्स से पहले।

स्त्री चेतना के इस प्रश्न को  हिंदी साहित्य के दायरे में कैद करके विमर्श मात्र का विषय बना दिया गया। जबकि यह भारतीय महिलाओं के चेतना उनके रोजमर्रा के दमन-शोषण और उत्पीड़न के सवाल भी थे।

महिलाओं को फेमिनिस्ट कहा जाना बुरा लगता था

कैथरीन मैयो के किताब के प्रकाशन के आस-पास ही भारत में महिलाएं संगठित होकर महिला मताधिकार के अधिकार के लिए भी संघर्ष करने लगी थी। भारत में महिलाओं के सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए प्रयासरत कई प्रमुख हस्ताक्षर भी स्वयं को “फेमिनिस्ट” कहे जाने से परहेज करती थीं।

मसलन, इंडियन राउंड टेबल कांन्फ्रेस(12 नवंबर 1930 से 19 जनवरी 1931) में शामिल सरोजनी नायडू और बेगम शाह नवाज़  दोनों ने स्वयं को फेमिनिस्ट कहे जाने से अलग किया और कहा कि “मेरे मूल्क में नारीवाद जैसी कोई चीज नहीं है। यहां पुरुष और औरत एक साथ काम करते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं। हमारे यहां पुरुष हर मामलों में संवेदनशील है।”

इस कमेटी में यह दोनों महिला मताधिकार के सवाल पर अपना मत दे रही थीं। दोनों भारतीय समाज के इस विचार के विरोध में अपना मत रख रही थी कि “सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के भागीदारी से उनके पारिवारिक जीवन को नुकसान होगा और उनका ध्यान घरेलू जिम्मेदारियों से बंट जाएगा।”

स्वयं को नारीवादी कहे जाने से बचे रहने के पीछे उनका ख्याल यह था कि नारीवादी महिलाएं भले ही महिलाओं के एक बड़े धड़े के समस्या को सतह पर लाने का प्रयास कर रही हैं परंतु, भारतीय समाज में महिलाओं के सवाल में विविधता और श्रेणिबद्धता के कारण भारत के संपूर्ण महिलाओं के प्रतिनिधित्व करने का उनका दावा खोखला है। दूसरा, अंतराष्ट्रीय मंच पर भारतीय महिलाओं का एक अलग सर्वागीण छवि पेश करना चाहती थीं।

80 के दशक में जब महिलाओं ने संगठित होकर घरेलू हिंसा, दहेज, बलात्कार, महँगाई जैसे सवालों पर मुखर होकर सड़कों पर आईं, मथुरा बलात्कार कांड, रूपकंवर सती घटना, शाहबानो जैसी घटना सतह पर आईं।

समानता के ओर की रिपोर्ट में पहली बार महिलाओं के अदृश्य श्रम की पहचान हुई, एक साथ महिलाओं के जुड़े कई सवाल सूत्रबद्ध हुए और उसके बाद महिलाओं ने स्वतंत्रता के साथ समानता के सवालों को नत्थी किया। लैंगिक असमानता के सवाल पुर्नपरिभाषित होने शुरू हुए। इस दौर में भी महिलाए स्वय को “फेमिनिस्ट” कहने से परहेज करती थीं।

एक लोकतंत्र में सही सुधार तथा पुर्नरचना का काम, वह आर्थिक क्षेत्र में हो अथवा सामाजिक या समाज के किसी भी क्षेत्र में, असमानता के वातावरण में कभी नहीं किया जा सकता है। इस तरह नारीवाद को बदनाम करना, एक गंभीर साजिश के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। नारीवाद की प्रासंगिकता को बचाए रखने के लिए इस तरह के झूठ का पर्दाफाश करना जरूरी है।

इमेज सोर्स: Still from Ghar Usse Kehte Hain, Sandhu Developers/YouTube

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