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‘लड़की है ना?’ और कुछ ऐसे सवाल जो गुंजन सक्सेना देखते हुए मेरे मन में उठ रहे थे…

अगर गुंजन सक्सेना के पापा उनके लिए पूरी दुनिया से नहीं लड़ते, तो उनके सपनों का क्या होता? क्यों एक पिता की हां या ना आज भी हमारे सपनों का रुख बदल सकती है?

अगर गुंजन सक्सेना के पापा उनके लिए पूरी दुनिया से नहीं लड़ते, तो उनके सपनों का क्या होता? क्यों एक पिता की हां या ना आज भी हमारे सपनों का रुख बदल सकती है?

सब लोग आजकल एक ही बात कर रहे हैं, फिल्म गुंजन सक्सेना की! क्या सच, क्या झूठ तो छोड़िये, जब मैं गुंजन सक्सेना देखने बैठी तो इन प्रश्नों ने मुझे घेर लिया और मैं इनके जवाब ढूंढने लगी। क्या आपके सामने भी ये प्रश्न खड़े थे?

क्या एक लड़की को हमेशा पने सपनों को पूरा करने के लिए किसी सपोर्ट की ज़रूरत होती है? अगर गुंजन सक्सेना के पापा ने उनका साथ नहीं देते, तो भी क्या वो आज हम सबके बीच जानी जातीं? अगर गुंजन सक्सेना के पापा अपनी बेटी के लिए पूरी दुनिया से नहीं लड़ते, तो क्या गुंजन में अपने सपनों को पूरा करने के लिए उतना ही ज़ज़्बा रहता? 

क्यों पितृसत्ता आज भी इतनी मजबूत है कि एक पिता की ज़िद के आगे सबको झुकना पड़ता है?  

अगर उनके पापा ने उनका साथ नहीं दिया होता तो वो शायद वो पूरी दुनिया को तो क्या अपने माँ और भाई को भी नहीं समझा पातीं।

तो मेरा प्रश्न है, अगर किसी के पापा भी साथ न दे तो क्या उसे सपने देखने का अधिकार नहीं? क्या वो नहीं कर सकती अपने मर्ज़ी का? क्यों पैट्रिआर्की आज भी इतनी मजबूत है कि एक पिता की ज़िद के आगे सबको झुकना पड़ जाता है।  

गुंजन सक्सेना के पिता की जगह माँ ने साथ दिया होता तो क्या होता?

और सोचिये अगर गुंजन सक्सेना के पिता की जगह माँ ने साथ दिया होता तो क्या वो आगे बढ़ पातीं? क्या माँ की जिद आगे पिता झुक जाते? शायद नहीं। और इन्हीं छोटी-छोटी बातों से पनपता है हमारा पितृसत्ता की सोच से पीड़ित समाज। 

एक लड़की को अपनी काबिलियत साबित करने के लिए जीतना ही ज़रूरी क्यों हो जाता है?

बेशक गुंजन सक्सेना अपनी काबिलियत के दम पर वहां तक पहुंचीं, लेकिन जब वो कारगिल वॉर के लिए गयी थीं, अगर उस समय उनके सीनियर की जगह उनके एयरक्राफ़्ट पर हमला हो जाता, तो क्या आज आप उनकी इतनी बड़ी अचीवमेंट को इसी प्रकार सेलिब्रेट करते?

अगर न चाहते हुए भी वो कारगिल वॉर में अपने आप को साबित नहीं कर पातीं, तो क्या आज आप उन्हें इसी तरह याद करते या शायद कहते ‘महिला हैं इसलिए।’ जबकि वो एक हादसा जो किसी के भी साथ हो सकता था। तो बात ये है कि एक लड़की को अपनी काबिलियत साबित करने के लिए जीतना ही ज़रूरी क्यों हो जाता है। 

‘लड़की है ना’ इसलिए? क्या लड़के कभी नहीं हारते?

लड़कियाँ भी उतनी ही मेहनत और अपनी कबिलियत के दम पर पुरूषों के बराबर पहुँचती हैं, लेकिन अगर उनसे कोई गलती हो जाये तो समाज झट से कह देगा, ‘लड़की है ना इसलिए’। क्या लड़कियाँ हार नहीं सकतीं? हां, अपनी पूरी मेहनत के बावजूद भी कई बार फ़ेल होते हैं, लेकिन क्यूँ उस हार को एक मुद्दा बना कर उसे बार-बार याद दिलाया जाता है कि तुम लड़की हो इसीलिए हार रही हो?

लड़के भी हारते हैं, उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता? उन्हें तो कभी नहीं कहा गया कि तुम लड़के हो इसलिए हार रहे हो ? क्यों अभी तक भी जीत की तरह ही हार को सामान्य नहीं लिया जाता है। हर बार जीतना ज़रूरी नहीं होता है। 

फिल्म गुंजन सक्सेना की तरह, आज भी हमारी करियर चॉइस में क्यों रुकावट है ये ‘लड़कियों की सुरक्षा’?

क्यों लड़कियों की सुरक्षा की सारी चिंताएँ उनके करियर चॉइसेस के वक़्त ही जताई जाती हैं। गुंजन सक्सेना के भाई जो खुद एक आर्मी अफसर थे, वो क्यों बार-बार कह रहे थे कि ये फील्ड लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है, इसमें बहुत खतरा है? क्यों, क्या खतरा सिर्फ लड़कियों के लिए होता है? क्या लड़कों के लिए खतरा नहीं होता है?

जैसे कहा जाता है ना, ‘लड़कियाँ ही नहीं लड़कों को भी रोने का अधिकार है’, तो ठीक वैसे ही लड़के ही नहीं लड़कियाँ भी खतरा उठा सकती हैं। और अगर उन्हें थोड़ी परेशानी हो रही है, तो होने दीजिये, लड़कियाँ भी मजबूत होती हैं। चुनौतियों से वो घबराती नहीं हैं। बस उन पर भरोसा तो करके देखिये। क्यों लड़कियों को सेफ्टी, सिक्योरिटी का वास्ता देकर उन्हें आप अंदर से कमजोर बना रहे हैं?  

क्यों आज भी एक लड़की के सपनों को मुद्दा बनाया जाता है?

क्यों आज भी एक लड़की के सपनों को एक मुद्दा बनाया जाता है। अगर वही सपने लड़के देखते हैं तो गर्व महसूस होता है, लेकिन अगर लड़की कुछ अपनी मर्ज़ी का करे, तो उसके हर तरह से नेगेटिव आस्पेक्ट्स गिनवा दिए जाते हैं।

अक्सर ये देखा है कि एक तरफ तो हर कोई चाहता है कि लड़कियाँ भी आगे बढ़ें, तरक्की करें, लेकिन सब उन्हीं के हिसाब से। अगर गुंजन सक्सेना भी समाज की बातों में उलझकर अपने पायलट बनने के सपने को छोड़ कोई और प्रोफ़ेशन करती तो क्या वो अपना पूरा पोटेंशियल दे पातीं? क्या वो खुश रह पातीं? ये तो वही बात हो गयी कि आप उसके पंख काटकर कहते हैं कि ‘जा उड़ जा’। अगली बार से अपनी बेटियों को गुंजन सक्सेना जैसे उदाहरण देने से पहले सोच लें कि आप किसकी भूमिका अदा कर रहे हैं? क्या आप ही अपनी बेटी की ज़िन्दगी के सबसे बड़े विलन हैं? 

क्या आप हैं अपनी बेटी की ज़िंदगी के सबसे बड़े विलन

इन प्रश्नों के जवाब तो शायद नहीं मिलेंगे। क्योंकि शायद आज भी समाज पितृसत्ता से जूझ रहा है।   लेकिन अगर आप उनका साथ नहीं दे सकते हैं तो उन्हें रोकिये भी मत।

हाँ एक वक़्त पर हो सकता है कि वो हार जाये। पूरी कबिलियत होने पर भी हार जाये और हो सकता है उस वक़्त उन्हें आपकी जरूरत हो। लेकिन अगर आप उनका साथ नहीं दे सकते, तो कम से कम ये न कहें, ‘अब न तू शादी करके सेटल हो जा बच्चे।’

वो संभाल लेगी अपने आप को और देखना देर से ही सही लेकिन हर लड़की अपनी काबिलियत के दम एक न एक दिन ज़ीत के जरूर आएगी। हाँ ज़रूरी नहीं है कि हर किसी को पहले कदम पर सफलता मिले, हर कोई हर वक़्त सुरक्षित हो, लेकिन इसे इतना बड़ा मुद्दा मत बनाइयेगा कि उसके सपने पूरे होने से पहले ही बिखर जाएँ।  

और इन सभी प्रश्नों को समाज के ऊपर थोपने से पहले गुंजन सक्सेना की ये लाइन दोहरा लें, “दुनिया की छोड़ो दादा, खुद को बदलो शायद आपको देखकर दुनिया की सोच भी बदल जाए।” 

मूल चित्र : Screenshot from film Gunjan Saxena : The Kargil Girl

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About the Author

Shagun Mangal

A strong feminist who believes in the art of weaving words. When she finds the time, she argues with patriarchal people. Her day completes with her me-time journaling and is incomplete without writing 1000 read more...

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