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जिन निग़ाहों में थी, तलवार भी इमराह पे हराम, आ गई उनके मुक़ाबिल लिए लश्कर औरत।
एक अरसे से दबी-कुचली, मुसाफिर औरत क़ैदी ओ’ कुश्ता, ओ’ रंजीदा, ओ’ मुज़तर औरत।
उठ के ख़ुद आएंगी, अब राहें क़दम बोसी को अब निकल आई है, दरवाज़े से बाहर औरत।
तुम हो बस तंग नज़र, तूबा तलक देखते हो जाएगी देख, जहाँ उससे भी ऊपर औरत।
कोई अब, जिन्सी तवातिर नहीं मंगताओं में जिस तरफ डालो नज़र, पाओ तवांगर औरत।
जिन निग़ाहों में थी, तलवार भी इमराह पे हराम आ गई, उनके मुक़ाबिल लिए लश्कर औरत।
देखने वालों, कि ये हुस्न ए’ नज़र ने देखा जिस जगह पहुँची, दिखाई पड़ी बेहतर औरत।
इल्म साज़ी कि क़यादत, कि सहाफ़त, कि निज़ाम सारी नालेंन में है, पाओं बराबर औरत।
मूल चित्र: Canva
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