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शेफ विकास खन्ना द्वारा निर्देशित नीना गुप्ता स्टार्रर फिल्म ‘द लास्ट कलर’ पूछती है कि हमारे देश की विधवा औरतों की जिंदगी आज भी इतनी बेरंग क्यों है?
वाराणसी की गलियों में रहने वाली विधवा महिलाओं की जिंदगी के इर्द गिर्द घूमती ये फिल्म आज भी हमे सोचने पर मजबूर करती है कि क्या आज भी पति के गुज़र जाने से ही महिलाओं के जिंदगी के सारे रंग फ़ीके पड़ जाते है? क्या उनका ख़ुद का कोई अस्तित्व नहीं है?
इंडियन अमेरिकन शेफ विकास खन्ना द्वारा निर्देशित फिल्म द लास्ट कलर ने एक बार फिर अवार्ड अपने नाम किया है और चर्चा का विषय बन गयी है। हाल ही में विकास खन्ना ने अपने ट्विटर हैंडल पर इसकी जानकारी देते हुए बताया की इस फिल्म को एक बार फिर से इको ब्रिक्स इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ( Echo BRICS International Film Festival ) में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म की श्रेणी में रजत पुरस्कार ( Silver अवॉर्ड ) मिला है।
जनवरी 2019 में आयी यह फिल्म एक बहुत स्ट्रांग मैसेज देती है और हमारे देश में विधवा महिलाओं की दुर्दशा को दर्शाती है। इस फिल्म की एक्ट्रेस नीना गुप्ता ऐसे तो अपने हर किरदार को बख़ूबी निभाने के लिए जाती है लेकिन वो कहतीं हैं की ये किरदार उनके लिए बहुत खास है। इसमें उन्होंने एक विधवा औरत का किरदार निभाया है। उनकी रियल लाइफ में जितनी स्ट्रांग लेडी के रूप में उन्हें देखा जाता है इस फिल्म में भी उन्होंने उतनी ही स्ट्रांग लेडी का किरदार निभाया है।
वाराणसी के इर्द गिर्द घूमती इस कहानी में दिखाया है कि कैसे एक 9 साल की बच्ची अपने रोज़ का गुज़ारा करने के लिए भी कितनी मुश्किलों का सामना करती है। हां ये कहानी एक विधवा औरत और उसकी जिंदगी में रंग भरने वाली बच्ची के ऊपर ही बनी है।
इसमें 9 साल की बच्ची छोटी उर्फ़ अक़्सा सिद्द्की और एक बूढ़ी विधवा औरत, नूर उर्फ़ नीना गुप्ता की दोस्ती को दिखाया है। छोटी एक टाइट्रोप वॉकर है जो कैसे भी करके स्कूल जाने के लिए पैसे इक्क्ठे करती है और इन सब में नूर उसका बहुत साथ देती है और उसे मोटिवेट करती है। बदले में छोटी भी नूर से वादा करती है की इस होली पर वो उसे रंग लगाएगी।
हां क्यूंकि हमारे यहां पति की मौत के बाद एक औरत की जिंदगी से उसके सारे रंग छीन लिए जाते हैं। तो क्या होली की शाम छोटी नूर की जिंदगी में रंग भर पाती है ? अगर आपने ये फिल्म देख़ रखी है तो आपको पता होगा और नहीं देखी तो आज ही ये ज़रूर देखें और जाने की आखिर हमारे देश की विधवा औरतों की जिंदगी इतनी बेरंग क्यों है।
विकास खन्ना की ये कहानी उनकी नॉवल द लास्ट कलर पर ही आधारित है। विकास खन्ना ने एक इंटरव्यू में बताया की जब वो वाराणसी और वृन्दावन गए थे तब वहां स्ट्रीट चिल्ड्रन और विधवाओं की स्थिति देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ था और वही गंगा किनारे बैठकर उन्होंने इसकी पूरी स्क्रिप्ट तैयार करी थी। इस कहानी ने हमारे देश की उन औरतों और बच्चों के लिए आवाज़ उठायीं जिन्हे अक्सर हम बेचारा कहकर टाल देते हैं।
इस फिल्म ने दमदार कहानी, डायरेक्शन और एक्टिंग के लिए कई अवार्ड्स जीते हैं। नीना गुप्ता को इसके लिए बेस्ट एक्टर का अवार्ड भी मिल चुका है। और इस फिल्म ने बेस्ट पिक्चर केटेगरी के लिए ऑस्कर नॉमिनेशन में भी अपनी जगह बनाई है। इस फिल्म को डेलास इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फीचर फिल्म से नवाज़ा जा चुका है। और इतना ही नहीं इस फिल्म को कई नेशनल और इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में दिखाया जा चुका है। ख़ैर इन अवार्ड्स और स्क्रीनिंग्स की लिस्ट तो बहुत लंबी है, लेकिन ये फिल्म हमारे समाज को जो सन्देश देना चाहती है वो हम तक पहुंचा? क्या आपने उन महिलाओं के बारे में एक बार भी सोचा ?
आज भी पूरे देश से हर साल लाखों की संख्या में विधवा महिलायें वृन्दावन आती है और वें दो वक़्त की रोटी के लिए मंदिरों के बाहर, आश्रमों में भीख मांगते है। आप सोच रहें होंगे की कि आखिर इसकी शुरुवात कहाँ से हुई। क्यों ये महिलाएं वृन्दावन आकर रहती है। इसके पीछे माना जाता है की 16th सेंचुरी में बंगाल के एक सोशल रिफॉर्मर चैतन्य महाप्रभु कुछ महिलाओं को सती प्रथा से बचाने के लिए वृन्दावन लेकर आये थे। और तब से ही ये एक ट्रेडिशन की तरह समझा जाने लगा और न जाने हर साल ऐसे कितने परिवार अपनी घर की इन महिलाओं को यू हीं वृन्दावन की गलियों में छोड़ कर चले जाते हैं।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक इंडिया में लगभग 40 मिलियन विधवा महिलाएं हैं। और UN का दावा है की इन महिलाओं की संख्या आने वाले 40 सालों में तिगुनी हो जाएगी और तक़रीबन 300 मिलियन के करीब पहुंच जाएगी। और इन में से 90 % महिलाएं इनफॉर्मल सेक्टर में काम करती हैं। तो हम अंदाज़ा लगा सकते है कि हमारे देश की इन महिलाओं की चुनौतियाँ कम नहीं है।
तो क्या हम इसके लिए कुछ कर रहें हैं। अगर विकास खन्ना की इस मूवी की बात करी जाये तो इसमें 24 साल बाद छोटी एक ऐडवोकेट बनकर इन महिलाओं और बच्चों के लिए लड़ती है। तो क्या हमे भी भी शायद छोटी जैसे ही किसी बहादुर लड़की जरूरत है जो इन महिलाओं के लिए आवाज़ उठा सके? क्या हम भी ऐसे ही किसी 24 सालों का इंतज़ार करेंगे। ख़ैर 24 क्या हम पिछले 2400 सालों से तो इन महिलाओं के साथ हो रहे अन्नाय को देखते ही आ रहें हैं।
नीना गुप्ता की फिल्म द लास्ट कलर अगर आपने अभी तक नहीं देखी है तो देखिएगा ज़रूर और सोचियेगा की क्या आप अपने घर की या आस पास की इन बुजुर्ग़ विधवा महिलाओं के साथ सही से बर्ताव करते हैं? आप उन्हें सशक्त बनाने के लिए क्या करतें हैं और क्या कर सकते हैं? इस को लेकर अपनी राय हमारे साथ कमेंट सेक्शन में साझा करें।
मूल चित्र : YouTube
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