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अक्सर कहा जाता है कि मायका माँ के साथ ही, खत्म हो जाता है! सच कहूं तो, ससुराल भी सास के साथ ही खत्म हो जाता है, रह जाती हैं बस यादें
अक्सर कहा जाता है कि मायका माँ के साथ ही, खत्म हो जाता है! सच कहूं तो, ससुराल भी सास के साथ ही खत्म हो जाता है!
रह जाती हैं बस यादें, उनकी उस न्यौछावर की, जो तुम पर वार कर दी थी मिसरानी को!
उनकी उस हिदायत की, जो तुम्हारी मुट्ठियों में चावल भरकर थाली में डालने की रस्म के दौरान कान में फुसफुसाते हुए दी थी कि ‘यूंही अन्नपूर्णा बन कर रहना हमेशा!’
उनकी उस ढाल की जो, मुंह दिखाई में तुम्हारे नाच न आने पर तंज कसती औरतों के सामने ‘गाना आवै इसे!’ कहकर तन गई थी!
उनकी उस ‘सदा सौभाग्यवती रहो!’ वाले आशीष की जो तुम्हें अपने गठजोड़ संग उनके चरण स्पर्श करते ही मिली थी!
उनके उस अपनेपन की, जो तुम्हें पहली रसोई की रस्म निभाते कही थी ‘सब मैंने बना दिया है, बस तुम खीर में शक्कर डाल देना! रस्म पूरी हो जाएगी !’
उनकी उस चेतावनी की जो हर त्यौहार से पहले मिल जाया करती थी, ‘अरी सुन कल सुहाग का त्यौहार है, मेहंदी लगा लियो !’
उनकी उस दूरदृष्टि की, जो तुम्हारी अधूरी ख्वाहिशों के मलाल को सांत्वना देते दिखती कि ‘सबर रक्खा करैं, देर-सबेर सब मिला करे!’
उनके उस बहाने की, जो तुम्हारे मायके जाने के नाम से तैयार हो जाता कि ‘पता नहीं क्यों रात से जी घबड़ा रा!’
उनके उस उलाहने की, जो तुम्हारे बच्चों संग सख्ती के दौरान सुनाया जाता, ‘हमने तो कभी न मारे!’
उनके उस आखिरी संवाद की, ‘ननद, देवरानी, जेठानी संग मिल के रहियो!’
उनके उस कुबूलनामे की, जो आखिरी लम्हों में याददाश्त खोने के बावजूद भी, बड़बड़ाते सुना कि ‘बहुत मेहनत करै, न दिन देखै न रात, बहुत करा इसने सबका!’
उनकी उस धमकी की जो कभी कभार ठिठोली करते मिलती, ‘मैं कहीं न जाऊं, यहीं रहूंगी इसी घर में, तेरे सिर पे, हुकुम चलाने को!’
मैंने तो सच माने रखा उस ठिठोली वाली धमकी को, तुम्हारे जाने के बाद भी! तो क्यों नहीं याद दिलाई कल मेहंदी लगाने की? आज सुहाग का त्यौहार था, और मैं भूल गई मेहंदी लगाना!
मालूम नहीं, इस रिश्ते की समझ हमें देर से क्यों आती है ?
मूल चित्र : YouTube
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