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राजा राममोहन राय की आज 248 वीं जयंती है, बीते हुए समय और आज के दौर में मेरे सामने ऐसा कोई शख्स नहीं जिसकी बौद्धिकता, मानवीयता और आकर्षण राममोहन राय जैसा हो।
ब्रितानी साम्राज्यवाद के दौर में भारत अंग्रेज़ों का राजनीतिक तौर पर एक गुलाम मुल्क ही नहीं था, सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं की जंज़ीरों में भी जकड़ा हुआ था। उस दौर में भारत के अंदर प्रबोधन की जो शुरुआत हुई, वह राजा राममोहन राय ने की। हालांकि इस बदलाव की पूरी अंगड़ाई देखने से पहले ही 27 सिंतबर 1833 को उनकी मौत हो गई।
भारतीय समाज में आज जो कुछ भी बेहतर है उनमें राजा राममोहन की कोशिशों का एक बड़ा योगदान है। यही वजह है कि उन्हें आधुनिक भारत के निर्माता के साथ-साथ भारतीय पुनर्जागरण काल का जनक भी कहा जाता है।
राजा साहब औपनिवेशिक भारत में वह पहली हस्ती हैं, जिन्होंने धार्मिक श्रेष्ठता के उन्माद के नाम पर महिलाओं पर लादी गई “सती प्रथा” को मानवता के नाम पर काला धब्बा कहा था।
सती प्रथा के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा उनको अपने ही घर से मिली। बड़े भाई जगमोहन की मौत के बाद उनकी पत्नी को सती प्रथा की बेदी पर जला दिया गया। राजा साहब ने इसके खिलाफ अभियान का संकल्प लिया और 18 साल के संघर्षों के बाद, जनरल विलियम बैंटिक की मदद से नवम्बर 1830 में सती प्रथा के खिलाफ अध्यादेश पास करवा पाने में सफल हुए। आज बेशक सती प्रथा नहीं है, लेकिन वो सोच बदस्तूर जारी है, जो एक रेखीय राष्ट्रवाद का राग अलपाते हुए स्त्रियों की पराधीनता को प्रकारांतर से जायज ठहराती है। जाहिर है इस सोच के खिलाफ मानवीय संघर्ष खत्म नहीं हुआ है।
इतिहास के लोकप्रिय आख्यानों में इस बात की चर्चा नहीं के बराबर होती है कि राजा साहब ही वह पहले शख्स थे, जिन्होंने पैतृक संपत्ति में महिलाओं को बराबरी का हक देने की वकालत की थी। बाल विवाह हो या पोंगापंथी, मूर्तिपूजा हो या महिलाओं के लिए शिक्षा इन सभी मुद्दों पर राजा साहब की सोच अपने समय से आगे थी।
देश की महिलाओं को लेकर राजा राममोहन राय के विचार के बारे में क्रॉमवेल क्राफोर्ड “राममोहन राय ऑन सती एंड सेक्सिज़्म” में लिखते हैं,
राजा साहब महिलाओं को राष्ट्र के संदर्भ में देखते थे और राष्ट्र को सभ्यता की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के संदर्भ में। देश में महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार से वे शर्म का अनुभव करते थे।
22 मई 1772 को पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले के राधानगर गांव में पैदा हुए राजा साहब को सुधारवादी माना जाता है जबकि वह खुद अपनी आत्मचेतना के विरोधी थे। ज़मींदार परिवार में पैदा हुए और ज़मींदारी छोड़ दी, ब्राह्मण परिवार से थे और मूर्ति-पूजा, पोंगापंथी का विरोध किया। हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, फारसी, अरबी और हिब्रू भाषा के साथ-साथ धर्मों के जानकार थे, पर कभी नहीं कहा कि एक भाषा या धर्म श्रेष्ठ है।
आधुनिकता के प्रति इतने अधिक वचनबद्ध थे कि जब अंग्रेज़ी सरकार ने संस्कृत कॉलेज खोलने का फैसला किया तो उन्होंने पत्र लिखा, “संस्कृत शिक्षा प्रणाली देश को अंधकार में रखने के लिए लाई गई है।”
राजा साहब के अंदर विविधता का अंदाज़ इस बात से लग सकता है कि उन्होंने समाज सुधार के उद्देश्य से “मिरातुल अखबार”, “संवाद कौमुदी” और “बंगदूत” अखबार का संपादन किया। यहीं नहीं, हिन्दी में तीन, फारसी में दो, बंगाली और संस्कृत में 32 और अंग्रेज़ी में 47 किताबें लिखीं। प्रेस की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आज़ादी और समाज सुधार के उनके प्रयास के कारण उनकी तुलना वाल्टेयर और जॉन मिल्टन से की जाती है।
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि राजा साहब की आस्था आधुनिकता के प्रति गहरी थी, यूरोपीय पुनर्जागरण का उनपर गहरा प्रभाव था। राजनीतिक व्यवस्था में भी राजा साहब मनुष्यता को केंद्र में रखना चाहते थे इसलिए उन्होंने सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात कही, जिससे स्वतंत्रता की हिफाज़त हो सके। मांनस्क्यू और बेंथम भी राजा साहब के यथार्थवादी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित थे। जिसकी वकालत बाद के दिनों में महात्मा गांधी ने भी की। देश में पंचायत व्यवस्था-ज्यूरी सिस्टम की मांग राजा साहब ने ही की थी, जो आगे चलकर पंचायती राज के रूप में जाना गया। राजा साहब ने न्याय को ज़्यादा पारदर्शी बनाने के लिए दीवानी अदालतों को ज़्यादा अधिकार देने की वकालत भी की।
राजा साहब को समाज सुधारक, आधुनिकता के पैरोकार, महान स्कॉलर, लेखक, पत्रकार आदि बताना एक खास तरह के दावे में बांधने की कोशिश कही जा सकती है। राजा साहब की मौत के समय उनके डॉक्टर टी बूट उनके बारे में लिखते हैं,
बीते हुए समय में और आज के दौर में मेरे सामने ऐसा कोई शख्स नहीं जिसकी बौद्धिकता, मानवीयता और आकर्षण राममोहन राय जैसा हो।
आज स्कूल के टेक्स्ट बुक में हम राजा राममोहन राय को जिस रूप में जानते हैं, ज़रूरत है उसका दायरा बढ़ाया जाए। भारत के लोगों के ज़ेहन में राजा राममोहन राय सामाजिक कुरीतियों के विरोधी और आधुनिकता के पहले नायक के रूप में स्थापित हैं। जबकि “स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व” को उन्होंने भारतीय समाज में रचने का प्रयास भी किया। वह आधुनिकता की रोशनी में तमाम पूर्वाग्रही श्रेष्ठता के उन्माद को चुनौती देने की कोशिश कर रहे थें।
आज राष्ट्रवाद और देशभक्ति का नारा लगाने वालों को यह बतलाना भी ज़रूरी है कि राष्ट्र सिर्फ एक भौगोलिक इकाई नहीं होता है ना ही एक तरह के धार्मिक समूहों की खानदानी ज़मीन, राष्ट्र पूरे विश्व का एक हिस्सा भी है, मानवतावाद को ही केंद्र में रखकर हम विश्व व्यवस्था का हिस्सा बने रह सकते हैं।
मूल चित्र : Wikipedia
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