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ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए। इन सब की उधेड़-बुन में जो होना चाहिए था वो हुआ नहीं, और जो करना चाहती थी, वो किया नहीं।
मुझे मेरा आसमान चाहिये।
कई महिलाओं से बात हुई, कुछ गहरे दोस्त, कुछ सिर्फ जान-पहचान वाली, कई सहकर्मी रह चुकी थीं और कुछ रोज़मर्रा सफर में मिलने वाले हमसफ़र। सबकी कहानियां अलग थीं, पर कहीं, सबके दिलों में एक तरह की टीस थी।
कोई सिंगल थी, कोई एकल अभिभावक थी, कोई वैवाहित पर बहुत कम उम्र में ही ज़िम्मेदारी लिये हुए थी, और बहुत अलग-अलग परिस्थितियों में थीं। उन सब की आवाज़ है यह लेख।
ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए। इन सब की उधेड़-बुन में जो होना चाहिए था वो हुआ नहीं और जो करना चाहती थी, वो किया नहीं।
ऐसा नहीं कि जिंदगी जी नहीं, पर जिंदगी को समझा नहीं। आज जब उसे समझ पा रही हूं, तो लगता है कि किसी तरह, बस किसी भी तरह, बीता हुआ वक्त वापस ले आऊँ। थोड़ी सी समझदार हो जाऊँ। थोड़ी सी स्वार्थी हो जाऊँ। थोड़ी बईमान हो जाऊँ। थोड़ी बेपरवाह हो जाऊँ। और थोड़ी निडर हो जाऊँ। बस।
आज कल यही सोच-सोच कर अपनी बेचैनी बढ़ा ली है। जानती हूं कि गया वक्त वापस नहीं आता, पर मन में कहीं एक विश्वास है कि मेरा वक़्त आयेगा। देर से सही, पर मेरा वक़्त आयेगा।
बीते वक्त में मैं कभी उसके लिए रुक गई, कभी इसके लिऐ चल पड़ी, कभी उनके लिए अपने कामों को अधूरा छोड़ दिया और कभी इनके लिए अपनी इच्छा के विरुद्ध जा कर कुछ चीजों का अन्त किया। पर इन सब में मैंने खुद को पूरी तरह गँवा दिया।
आज जब शरीर, उम्र के उस पड़ाव पर धीरे-धीरे पहुंच रहा है, जब हिम्मत में कमी दिखती है, जब जीवन का पूरा सफर आंखों के सामने साक्षत्कार होता है, तो मन में इस कदर बेचैनी बढ़ती है कि जितना भी वक्त बचा है उस में वो सब कर डालूँ जो अधूरा है। जितने हो सके अपने पँख फैला लूँ , अपना आसमान पा लूँ।
मैं नहीं चाहती कि सफर के अंत में मैं भारी मन से जाऊँ। मैं चाहती हूँ कि मैं इस उल्लास के साथ जाऊँ कि मैंने जी भर के जीवन को जिया है। हारी या जीती, पर कोशिश पूरी करी। मैं उसके लिये जी पाई हूँ जो मेरे अंदर है, जिसे मेरे सुख-दुःख से सबसे ज्यादा फर्क पड़ता है और जिसने औरों के मुकाबले मेरा सबसे ज्यादा साथ दिया है, मैं ।
मूलचित्र : Pixabay
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