कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

घर चलाने के लिए भी चार हाथ चाहिए होते हैं

बेटे को घर-गृहस्थी के काम सिखाना तौहीन और उनकी परवारिश में कोई विशेष अहतियात नहीं बरतना, विचारों के इसी बुनियादी अंतर ने महिलाओं को मशीन बना दिया है।

बेटे को घर-गृहस्थी के काम सिखाना तौहीन और उनकी परवारिश में कोई विशेष अहतियात नहीं बरतना, विचारों के इसी बुनियादी अंतर ने महिलाओं को मशीन बना दिया है।

छह लोगों के परिवार में एक मेरे पति ही थे कमाने वाले।

कितनी भी किफायत से घर चलाती लेकिन फिर भी हाथ तंग हो ही जाता था। अपनी इच्छाओं को मारकर, समझौते कर के किसी तरह मैंने अपने तीनों बच्चों को पढ़ा- लिखा कर इस काबिल बना दिया था कि उनको कभी शायद अपनी इच्छाओं का गला ना घोटना पड़े।

निमेष जी को तो कभी कोई खबर ही नहीं होती थी कि घर में कब क्या और कैसे हो रहा है। बस हर महीने तनख्वाह मेरे हाथ में रख कर हर जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते थे। उन मुट्ठी भर पैसों से मैंने कैसे समय बिताया मैं ही जानती हूँ। पूरे घर का काम, चौका, बर्तन, ,कपड़े, फिर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से लेकर खाना बनाना- खिलाना सब मेरे ही जिम्मे था। कभी दो पल फुर्सत के नसीब नहीं हो सके थे।

पड़ोस में रहने वाले शर्मा जी के ठाठ-बाट देखकर मन जल जाता था। साँवली सी साधारण सी पत्नी थी उनकी, लेकिन जान छिड़कते थे शर्मा जी उस पर। घर के काम करने के लिए मेड लगी थी, और शाम का खाना तो अक्सर शर्मा जी ही बनाते नज़र आते। फिर भी उनके चेहरे पर शिकन नज़र ना आती।आखिर कब तक बर्दाश्त करती, एक दिन गुस्से में जल-भुन कर मैंने भी निमेष की तुलना शर्मा जी से कर डाली।

निमेष तो मानो तैयारी से बैठे थे। उन्होंने भी आव देखा न ताव, कहने लगे, “तुम भी नौकरी करती, चार पैसे कमा कर लाती, तो मैं भी शर्मा की तरह तुम्हारे पीछे-पीछे घूमता। उनके घर में कमाने वाले दो हैं इसलिए नौकर का खर्च उठा पाते हैं। हमारे यहां मै अकेला दिन भर खटता हूँ, तुम तो घर में आराम से रहती हो।”

मैं कड़वा घूँट पी कर रह गई थी। कभी एक गिलास पानी भी निमेष ने खुद लेकर नहीं पीया था। कितनी आसानी से बोल गए कि मैं आराम से घर में रहती हूँ। पत्नी-धर्म को निभाते हुए मैंने बात वही ख़त्म कर दी थी। लेकिन एक बात जो गहराई से मेरे मन में समा गई थी वो यह थी कि, घर चलाने के लिए दो लोगों की कमाई चाहिए होती है, तभी घर में खुशियाँ आती हैं।

मेरी बेटी को कभी यह सब ना सुनना पड़े, इसलिए मैंने अपनी बेटी को सक्षम बनाया। पढ़ाया-लिखाया, इस काबिल बनाया कि उसके गुणों को देखते हुए एक संभ्रांत परिवार में उसकी शादी हो गई। शादी के बाद, पति-पत्नी दोनों की कमाई से घर बहुत अच्छे से चलने लगा। लेकिन शादी के कुछ महीनो बाद ही मेरी खिली-खिली सी बेटी मुरझाने लगी। मैं चिंतित थी इसलिए अपने मन की बात मैंने एक दिन बिटिया से पूछ ही ली।

चारू की बात सुनकर मैं गहरी सोच में पड़ गई। उसने मुझे बताया, “दिव्य और मैं दोनों जॉब करते हैं, लेकिन ऑफिस से आने के बाद दिव्य किसी काम में हेल्प नहीं करते। मुझसे भी एक घंटा पहले घर पहुँच जाते हैं, लेकिन चाय तक खुद बनाकर नहीं पीते। उनके सुबह के लिए कपड़े धो कर प्रेस करके मुझे ही सजाने होते हैं। रसोई और घर की बाकी जिम्मेदारियों में भी वो कोई हाथ नहीं बंटाते। ऐसा नहीं है कि मैं उनके लिए कुछ करना नहीं चाहती, लेकिन मम्मा मैं मशीन बन कर रह गई हूँ। फिर इन सब के बाद भी कोई काम गलत हो जाए, तो ऐसे दिखाते हैं, जैसे कोई गुनाह कर दिया हो मैंने। हर बात पर अपनी मम्मी के परफ़ेक्ट होने के गुण गाते हैं। उनके इस तुलनात्मक व्यवहार के कारण मैं हर समय तनाव में जीती हूँ। दो पल भी फुर्सत के नसीब नहीं होते मुझे। क्यूँ नहीं समझते दिव्य कि मैं भी तो इंसान हूँ। क्या मैं कभी नहीं थक सकती। घर और नौकरी के बीच में मैं तो कहीं खो गई मम्मा।”

“माना कि घर दो लोगों के कमाने से चलता है, लेकिन क्या घर की जिम्मेदारियाँ दो लोगों को मिल कर नहीं उठानी चाहिए? जिम्मेदारियां मेरी अकेले की क्यूँ हैं? मैंने आपको भी हमेशा अकेले ही घर संभालते देखा है, लगता है हम औरतों की यही नियति है।” चारू ने रूआँसे स्वर में कहा।

कितनी गलत थी मैं। और सिर्फ मैं नहीं, ना जाने कितनी ही और महिलाएं ऐसी हैं जो समझती हैं कि पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने, उनकी आर्थिक रूप से सहायता करने से वो सशक्त बनती हैं, उनका परिवार सशक्त बनता है। लेकिन इस सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि इस सोच ने महिलाओं को एक काम करने की मशीन बना दिया है। हम अपनी बेटी को तो पढ़ा-लिखाकर नौकरी पेशा बना रहे हैं, लेकिन बेटों को कब घर संभालना सिखाएँगे?

बिटिया के पैदा होने से उसकी विदाई तक, अपनी पूरी ताकत लगाकर हर माता-पिता अपनी बेटी को सर्वगुण संपन्न शिक्षित और भी हर संभव कला में दक्ष बनाते हैं। लेकिन बेटों की परवारिश में कोई विशेष अहतियात नहीं बरतते। बेटे को घर-गृहस्थी के काम सिखाना माँ अपनी तौहीन समझती हैं। विचारों के इसी बुनियादी अंतर ने महिलाओं को मशीन बना दिया है।

चारू में मुझे अपना अतीत नज़र आ रहा था। लेकिन चारू मैं नहीं बनेगी। मैंने चारू को दिव्य से खुलकर बात करने का सुझाव दिया। और मज़बूती से अपना पक्ष रखने को कहा।अब बदलाव का समय है। मैंने उसे समझाया अगर घर खर्च चलाने के लिए दो नहीं चार हाथ चाहिए होते हैं तो जिम्मेदारियां और घर के काम करने के लिए भी चार हाथ चाहिए होते हैं। घर हो या बाहर पति-पत्नी मिलकर जिम्मेदारी उठाएँ तो जिम्मेदारियाँ कभी बोझ नहीं बनती। आज अगर पत्नी बाहर जाकर पैसे कमा सकती है तो पति भी घर के कामों में पत्नी की मदद कर सकता है और उसको करनी ही चाहिए।

एक माँ होने के नाते क्या मैंने चारू को गलत सुझाव दिया है? आपके इस विषय पर क्या विचार हैं मेरे साथ साझा करिए।

About the Author

Sonia Saini

I love to write. read more...

5 Posts | 26,928 Views
All Categories