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मैं अपनी बेटी को अजनबी नहीं बना पाऊँगी, हर दुःख-दर्द में उसका साथ निभाऊँगी, ज़्यादा से ज़्यादा एक बुरी माँ ही तो कहलाऊँगी।
कहते हैं कि शादी के बाद बेटी का घर बसेगा या नहीं ये काफी हद तक बेटी की माँ पर निर्भर करता है। आदर्शवादी लोग मानते हैं कि कन्यादान के बाद बिटिया के जीवन में हस्तक्षेप करना गलत है और लड़कियों में बचपन से ही सहनशीलता का विकास करना चाहिए ताकि आगे चलकर वे ससुराल की विषम परिस्थितियों का सामना कर सकें। लेकिन इस विषय में मेरा अपना एक अलग ही नज़रिया है।
मेरी पढ़ी-लिखी बेटी को अगर सिर्फ़ घर संभालने के नाम पर नौकरी छोड़नी पड़े तो मुझे उससे ऐतराज है और मैं समझती हूँ कि हर माँ को होना चाहिए। कितनी रातों की नींद और चैन गवा कर ना जाने कितनी ही चुनौतियों को पार करने के बाद कोई लड़की या लड़का इस काबिल बनता है कि वो ज़माने की आँख में आँख मिला कर चल सके। इस सुअवसर को मेरी बिटिया यूँ ही जाने देगी तो मुझे ऐतराज होगा चाहे उसका कन्यादान ही क्यूँ न कर दिया हो।
मैं नहीं सिखा पाऊँगी उसको बर्दाश्त करना एक ऐसे आदमी को जो उसका सम्मान न कर सके। कैसे सिखाए कोई मां अपनी फूल सी बच्ची को कि पति की मार खाना सौभाग्य की बात है? मैंने तो सिखाया है कोई एक मारे तो तुम चार मारो। हाँ, मैं बेटी का घर बिगाड़ने वाली बुरी माँ हूँ लेकिन नहीं देख पाऊँगी उसको दहेज के लिए बेगुनाह सा जलते हुए। मैं विदा कर के भूल नहीं पाऊँगी अक्सर उसका कुशल क्षेम पूछने आऊँगी। हर अच्छी-बुरी नज़र से, ब्याह के बाद भी, उसको बचाऊँगी।
बिटिया को मैं विरोध करना सिखाऊँगी। ग़लत मतलब ग़लत होता है, यही बताऊँगी। देवर हो, जेठ हो, या नंदोई, पाक नज़र से देखेगा तभी तक होगा भाई। ग़लत नज़र को नोचना सिखाऊँगी, ढाल बनकर उसकी ब्याह के बाद भी खड़ी हो जाऊँगी।
“डोली चढ़कर जाना और अर्थी पर आना”, ऐसे कठिन शब्द जाल में उसको नहीं फसाऊँगी। बिटिया मेरी पराया धन नहीं, कोई सामान नहीं जिसे गैरों को सौंप कर गंगा नहाऊँगी। अनमोल है वो अनमोल ही रहेगी। रुपए-पैसों से जहाँ इज़्ज़त मिले ऐसे घर में मैं अपनी बेटी नहीं ब्याहुँगी। औरत होना कोई अपराध नहीं, खुल कर साँस लेना मैं अपनी बेटी को सिखाऊँगी।
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