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ना हो बचपन किसी का इस काली छाया से दूषित…

आवर्ती ज़ब बढ़ती गयी दिनों दिन इस खेल की, मैं घबराती, मैं सकुचाती, सोच कर उनसे मेल की, ना हो बचपन किसी का इस काली छाया से दूषित...

आवर्ती ज़ब बढ़ती गयी दिनों दिन इस खेल की, मैं घबराती, मैं सकुचाती, सोच कर उनसे मेल की, ना हो बचपन किसी का इस काली छाया से दूषित…

उन दिनों की बात है…

बात वो मेरे मन पर गहरा आघात है,
अभी परिपक्व भी ना हुई मन की कोपल,
मैंने जिया जो अनदेखा अनछुआ वो पल,
छूना, चूमना, बाहों में भर लेना मेरा तरुण तन,
वासना नहीं, वातसल्य का खेल समझता मेरा मन,
आवर्ती ज़ब बढ़ती गयी दिनों दिन इस खेल की,
मैं घबराती, मैं सकुचाती, सोच कर उनसे मेल की,
ना हो बचपन किसी का इस काली छाया से दूषित,
नज़र रखो हर गैर या अपने पर ना करो शर्म से पोषित।

मूल चित्र : Hugues de BUYER-MIMEURE via Unsplash

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