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ज़ुबैदा को ऐसा लगता था कि उसके सपनों को पंख मिल जाएंगे, पर ऐसा हो न सका। पंख तो उस को मिल गए पर उड़ने की आज़ादी नहीं मिल पायी।
ज़ुबैदा का जन्म एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार में हुआ था जहां लड़कियों को एक बोझ समझाता जाता है और लड़कों को वंश वाहक।
ज़ुबैदा के पिता उच्च सरकारी पद पर आसीन थे। उनके तबादले होते रहते थे, सो नये-नये शहरों में जाना होता रहता था। गाँव के माहौल से निकलकर जब ज़ुबैदा की माँ शहर आयी तो उसे लगा कि पढ़ाई तो बहुत ज़रूरी है, चाहे लड़का हो या लड़की। वैसे पहले तो वो लड़कियों को पढ़ाने के पक्ष में न थी पर सामाजिक दबाव में आकर ज़ुबैदा का एडमिशन एक अच्छे स्कूल में करा दिया।
ज़ुबैदा चार बहनों में सबसे छोटी थी, देखने में ठीक ठाक पर पढ़ने में काफ़ी तेज़ और होनहार। पढ़ाई के प्रति उसकी लगन देखकर उसके पिता काफ़ी खुश होते, पर बाकी बहनें अंदर ही अंदर जलतीं।
बात-बात पर वो बहनें माँ को भड़कातीं ताकि माँ, ज़ुबैदा की पढ़ाई बंद करवा दे और वो भी उन्ही की तरह चूल्हा चौका करे। पर ज़ुबैदा किसी भी तरह करके माँ को मना ही लेती थी। ज़ुबैदा के पिता भी उसकी तरफ़दारी करते थे।
वैसे तो माँ बाप अपने सब बच्चों को प्यार करते हैं, पर कभी कभी किसी एक की तरफ झुकाव ज़्यादा हो जाता है, यही बात ज़ुबैदा के साथ भी हुई। माँ-बाप दोनों उसे बेपनाह प्यार करते थे।
ज़ुबैदा जब मैट्रिक में अपने स्कूल में प्रथम आयी तो उसके माँ-बाप ख़ुशी से फूले नहीं समाये। फिर इंटरमीडिएट, ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन। ज़ुबैदा अपने परिवार की बंदिशों को धीरे-धीरे तोड़ती गई।
उसे कई नौकरियों के प्रस्ताव आये और कई जगह उसका चयन भी हो गया पर माँ का रूढ़िवादी विचार फिर से जागृत हो गया। उसकी बहनें जिनकी जलन अब नफरत का रूप ले चुकी थी, वो माँ को भड़कातीं कि माँ अच्छे घर की लड़कियाँ नौकरी नहीं करती हैं।
माँ ने इन बातों से घबराकर जल्द ही ज़ुबैदा के हाथ पीले कर दिए। माँ ने विदाई के वक़्त ज़ुबैदा को समझाया, ” बेटा अब तेरा पति ही तेरा सब कुछ है, अगर वो तुझे इजाज़त दे तो नौकरी कर लेना, वरना चुप रहना। कभी भी उससे पूछे बिना घर से क़दम न निकालना। ”
ज़ुबैदा विदा होकर अपने पति के घर आ गई। पति की अच्छी नौकरी थी। शुरुआत के दिन तो हंसी ख़ुशी गुज़रे और वो जल्द ही एक प्यारी सी बेटी की माँ बन गई। पर जल्द ही उसकी खुशियों को किसी की नज़र लग गई। ज़ुबैदा के पति की नौकरी चली गई। नौकरी की तलाश में उसका पति देश विदेश हर जगह भटका पर कहीं भी एक अच्छी और स्थायी नौकरी न मिल पायी।
ज़ुबैदा परेशान रहने लगी, उसे लगा कि अब उसे कुछ करना होगा। काफ़ी जतन के बाद उसे एक छोटी मोटी नौकरी मिल गई। तनख़्वाह तो ज़्यादा न थी पर इसके सिवा उसके पास कोई रास्ता भी न था। ज़ुबैदा किसी तरह गुज़र बसर करने लगी। उच्च मध्यम वर्ग से निम्न मध्यम वर्ग का ज़ुबैदा का सफ़र काफ़ी तकलीफ़देह रहा पर क़िस्मत पर किसका ज़ोर चला है?
ज़ुबैदा की बहनें उसकी दयनीय स्तिथि पर काफ़ी खुश होतीं पर ज़ुबैदा की माँ अब अपनी सोच पर पछता रही थी। वो सोच रही थी कि उन्होंने ज़ुबैदा को पंख तो दे दिया पर उड़ने की आज़ादी क्यों नहीं दी?
वहीं दूसरी ओर ज़ुबैदा और उसका पति अपनी बिटिया रानी को दीवार पर लिखते हुए देख रहे थे। ज़ुबैदा, प्यार से बेटी को गोद में लेते हुए बोल पड़ी, ” मेरी बेटी के सपनों को मैं कभी मरने नहीं दूँगी। मैं उसे पंख भी दूँगी और उड़ने की आज़ादी भी।”
मूल चित्र : Screenshot from short film Behadd, YouTube
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