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वे लोग कैसे जानेंगे जो इंसानियत के पुतले बनकर, सिसकियों को नाटक कहते हैं, ऐसे लोगों से करती हूं निवेदन, हम हर उस शख्स का करें उत्साहवर्धन!
जिंदगी की रेखाओं में उलझी सिसकियों का मोल नहीं वह अदृश्य ही रहती हैं…
इनकी आहट को संवेदना से सींचते हुए खामोशियों की पहचान बनाना भी ज़रूरी है…
वे लोग कैसे जानेंगे जो इंसानियत के पुतले बनकर सिसकियों को नाटक कहते हैं…
समाज में झूठी कुरितियों में जकड़े लोग रीतियों को निभाते हुए अपने फ़र्ज़ों की इतिश्री करते हैं…
ऐसे लोगों से करती हूं निवेदन समय की बहती धारा में कर निर्वहन उन रोती हुई सिसकियों को कर दफन हम हर उस शख्स का करें उत्साहवर्धन!
मूल चित्र : Canva
भगवान् का होना, एक ज़रुरत या एक खुदगर्ज़ी, एक साज़िश
प्यारे पापा, तेरे हर संघर्ष का शुक्रिया कुछ बनकर करना चाहती हूं…
स्वाति रावल – भारत की हर माँ का सलाम इस कोरोना योद्धा के नाम
तब वक़्त कुछ और था, वक़्त कुछ और है अब
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