कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
वो मेरे साथ मेरे कमरे में रहता था, मेरे साथ सोता था, कभी-कभी मेरे साथ घूमने भी जाता था, मुझ पर पैसा भी खर्च करता था लेकिन शब्द नहीं।
वो जब भी मेरे पास आता था शब्दों की कमी उसे बड़ी अखरती थी। शब्द होते ही कहाँ थे उसके पास मुझसे रूबरू होने के लिए?
यूं तो बाहर बैठ कर सबसे वो पूरे गद्यांश बोल लेता था, लेकिन मुझे अकेला पाकर शब्द मुंह में जम से जाते थे उसके। सिर्फ बोलने में ही नहीं, मेरी जुबान से निकले शब्द सुनने में भी उसको आपत्ति थी।
वो कहता था कि मेरे मुँह से निकलने वाला हर शब्द फिजूल है, बेमानी है, फिर चाहे वो उसके व्यवहार, परिवार, रिश्तेदारों, माँ या मेरी जरूरतों से सम्बंधित हो। सब मेरे दिमाग का वहम है जिसे मैं शब्दों का रूप देती रहती हूँ।
उसके अनुसार मैं बेकार की किताबें पढ़ती हूँ, बेकार के सिरिअल्स देखती हूँ और इन सब को पढ़ सुनकर जो फिजूल की बातें दिमाग में आती हैं उन्हें वाक्यों के रूप में उसके सामने रख कर उसका कीमती समय बर्बाद करती हूँ, जिसे की वो समाचार सुनने में , ज्ञानवर्धक किताबे पढ़ने में या अपने घरवालों से बात करने में व्यतीत करना चाहता है।
मेरे साथ होते किसी भी व्यवहार में ‘वो, उसकी माँ, उसके घरवाले’ हमेशा सही होते थे – गलत होते थे तो बस – मेरे मुँह निकले हुए वो शब्द जो की मेरे दिल के, मेरे आत्मसम्मान के टूटने पर मेरी पीड़ा को बयान करते थे।
वो मेरे साथ मेरे कमरे में रहता था, मेरे साथ सोता था, कभी-कभी मेरे साथ घूमने भी जाता था। मुझ पर अपना पैसा भी खर्च करता था लेकिन शब्द नहीं खर्चता था। अनमोल थे उसके शब्द, यूँ ही ‘किसी ‘ पर जाया नहीं करता था। बहुत खुशनसीब लोग थे वो, जिन्हें उसके शब्दों को सुनना नसीब होता था। पर मेरी ऐसी खुशनसीबी कहाँ थी।
पिछले दो सालो में सिर्फ हूँ, ना, ठीक है, हाँ, हो जायेगा, देख लो आदि शब्दों का परिचय करवाया है उसने मुझे। शब्दों को जज्बातों के धागे में पिरो कर वाक्य बनाना वो मेरे सामने भूल ही जाता था। हाँ जब अपनी माँ के साथ होता था तब उसकी वाक्य बनाने की कला इतनी मुखर हो उठती थी कि २-3 घंटे तो यूँ ही गुजर जाते थे।
जब किसी दोस्त से फोन पर शब्द रचना कर रहा होता था तो इतना सहज होता था कि लगता ही नहीं था कि ये वही इंसान है जिसे अपनी ही पत्नी के सामने शब्दों का अकाल पड़ जाता है।
दो सालों तक मैंने उसके शब्दों की कमी को अपनी व्याकरण से पूरी करने की भरपूर कोशिश की लेकिन मेरी व्याकरण का लगभग हर शब्द उसे नापसंद था। शायद उसे सच्चे शब्द अच्छे नहीं लगते थे क्योंकि कभी-कभी वो उसकी माँ और उसके व्यवहार के बारे में होते थे। मेरे प्रति उसकी उदासीनता के बारे में होते थे।
माँ, माँ होती है, ये मैं अच्छी तरह जानती हूँ लेकिन उसके सामने की माँ मेरे सामने आते ही सास में बदल जाती थी और फिर उसके शब्दबाण मेरे दिल को, मेरे स्वाभिमान को निशाना बनाकर उन्हें चोट पहुंचाते रहते थे। जब इन घावों को मैं उसे दिखाती तो ना उसके प्यार का और ना ही उसके शब्दों का मरहम मुझे मिलता था। मिलता था तो बस एक और घाव – मेरी असमर्थता, मेरी अनुपयोगिता का।
लेकिन मैं अपना फर्ज पूरा करती रही, इसी क्रम में मैंने उसे पिता बनने की खुशखबरी भी दी। तब से लेकर पूरे नौ महीने तक मैं इन्तजार करती रही उसका, उसके प्रेम का, उसके शब्दों का, उसके साथ का किन्तु वो इन्तजार पूरा कभी नहीं हुआ। अब तो मेरे शब्द भी मेरे अंतर्मन में जमने लगे। उन्हें बाहर आकर अपमान सहना अच्छा नहीं लगता था।
वो अपना सब काम छोड़ कर अपनी माँ के कमर दर्द के लिए डॉक्टरों के पास भागा फिरता था लेकिन मुझे डॉक्टर के पास ले जाने की उसे फुर्सत नहीं थी। मेरी दर्द भरी आह को भी वो अनसुना कर जाता था।
धीरे-धीरे मुझे ये यकीन हो चला था की मेरा वजूद उसके लिए कोई मायने नहीं रखता। मेरे शब्दों का पहाड़ शैने -शैनेः मेरी अंतरात्मा पर जमने लगा। पहले छोटा, फिर बड़ा और फिर इतना बड़ा कि उसका बोझ मेरे लिए असहनीय हो चला था।
मेरा सर इस बोझ से फटने लगा। इस वक्त भी अगर उसके शब्दों का सहारा मुझे मिल जाता तो मेरे मन का ये बोझ हट जाता। लेकिन मेरी तकलीफ, उसके पिता बनने की ख़ुशी भी उसके मौन को ना तोड़ सकी। धीरे-धीरे ये बोझ इतना बढ़ गया कि मैं अपना और अपने अंदर पल रही नन्ही सी जान का बोझ सहने लायक नहीं रही।
मैं स्ट्रेचर पर लेटी ऑपरेशन थिएटर की ओर बढ़ रही थी और वो अपने शब्दों को वाक्यों में पिरोने की कोशिश कर रहा था। लेकिन उसने अपने शब्दों को मुझ तक पहुँचाने में बड़ी देर कर दी।
मैं अब नहीं बचूंगी, ये मैं जान चुकी थी बस ईश्वर से इतनी प्रार्थना जरूर कर रही थी कि अगर मेरा बच्चा इस दुनिया में जन्म ले पाए तो उसे अपने पिता के शब्दों की कमी का सामना ना करना पड़े।
काश! मैं उसे समझा पाती कि शब्दों के धागे उस पुल की तरह होते हैं जो दो अजनबी इंसानों को पास लाते हैं और उनमें अगर प्रेम, विश्वास और अपनापन गूंथ दिया जाये तो उन्हें हमेशा जोड़े भी रखते हैं।
शब्द किसी एक रिश्ते की नहीं, हर रिश्ते की जरूरत होती है। अगर हमारे रिश्ते में भी शब्दों का, भावनाओं का संसार होता तो शायद मैं भी जी पाती।
मूल चित्र : Still from short film Kaash, YouTube
read more...
Women's Web is an open platform that publishes a diversity of views, individual posts do not necessarily represent the platform's views and opinions at all times.
Please enter your email address