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बात बेटी और परिवार की इज़्ज़त बचाने की आये तो ऑनर किलिंग ही सही?

अंतर्मन के द्वंद्व में उसी समय पिता ने भीष्म प्रतिज्ञा कर ली कि बेटी को बेटे की तरह पालेगा और इज्जत पर आँच न आने देगा, तो ज़रुरत पड़ने पर ऑनर किलिंग ही सही!

अंतर्मन के द्वंद्व में उसी समय पिता ने भीष्म प्रतिज्ञा कर ली कि बेटी को बेटे की तरह पालेगा और इज्जत पर आँच न आने देगा, तो ज़रुरत पड़ने पर ऑनर किलिंग ही सही!

चेतावनी : इस कहानी में ऑनर किलिंग का विवरण है जो कुछ लोगों को उद्धेलित कर सकता है।

ऑनर किलिंग या गौरव रक्षा हेतु हत्या के बारे में जब सोचती हूँ तो मन में यही आता है कि हम चाहे कितना भी विकास कर लें, पर सोच वही आदिम जमाने वाली ही ! क्रूर जानवरों जैसे शिकार को तड़पा-तड़पा कर मारने वाली।

अरे! बच्चे दरवाज़े पर टंगी नेम प्लेट नहीं! जो मैली हो जाएगी। अपनापन दें, तो राज़, राज़ नहीं रहेंगे। आप भी सच का मूल्यांकन कर पाएंगे और बच्चे भी आपके सुझाव को धमकी न समझ एक कुशल सलाह मानेंगे।

आठ सालों बाद किलकारी गूँजने की खबर

ऐसा ही एक घर जहाँ लगभग आठ सालों बाद किलकारी गूँजने की खबर मिलते ही खुशी की लहर दौड़ गई। और फिर वह दिन भी आया माँ के उच्च दर्जे से सुशोभित बहू को अपने बच्चे की आवाज़ सुनते ही अपने दर्द के खारे आँसू भी मीठे लगने लगे। आँगन में सब नजरें खुश थीं पर अचानक ध्यान से देखने पर पता चला कि उसी घर के बुजुर्ग रस्मों-रिवाजों रूपी अक्ल बांटती औरतें नाक मुँह सिकोड़ती नज़र आईं।

तभी नये पिता जी बोले, “क्या हुआ! माँ और बच्चा ठीक हैं ना?”

उत्तर मिला, “हाँ, ठीक हैं दोनों!”

“फिर क्या हुआ?”

“इतनी मन्नतें और हुई क्या ,लड़की!”

जैसे अमृत के संग किसी ने धतूरा चटा दिया हो! खुशी का सारा स्वाद कड़वा, कसैला हो गया। अब आँगन में पड़े तख्त पर, नये पिता जी भी धम्म से बैठ गए।

तभी बुआ आई तो कहने लगी, “क्या रोता है? बाप बनने को तरसते था, बाप बन गया ना! केवल बेटे का बाप बनना चाहता था? बेटी घर की लक्ष्मी होती है, इज्जत होती है! खुश हो! बाप बन गया है, अब कोई तुझ पर या तेरी जोरू पर बातें तो न बनाएगा?”

इज्जत पर आँच न आने देगा

नये पिता के मन में फिर लहरें हिलोर भरने लगी। पर गहराई में टीस भी थी कि इस इज्जत को धब्बा नहीं लगने देना! और इसी अंतर्मन के द्वंद्व के फलस्वरूप उसी समय पिता ने भीष्म प्रतिज्ञा कर ली कि बेटी को बेटे की तरह पालेगा और इज्जत पर आँच न आने देगा!

और इज्जत को खूब लाड़-प्यार से घर वालों की पहरेदार, अविश्वासी, नजरों के सुरक्षा घेरे में पाला गया। कई बार वो घेरा उसे चक्रव्यूह सा नज़र आता, पर नहीं! अपने सोच कर वह उसी में खुश होने की कोशिश कर लेती!

गाँव के बाहर अच्छे स्कूल में पढ़ाई फिर बिटिया बड़ी हुई, कालेज शहर में था तो घर से ही कार में बिटिया को ले जाने और लाने का पक्का बंदोबस्त किया गया। गाड़ी में उसे कोई और नहीं अपितु उसके पिता, चाचा या दादा ही लेकर जाएंगे। हमेशा सुनती कि शुक्र मनाना चाहिए कि लड़की को पढ़ा रहे हैं। इस बात पर  वह लड़की भी गर्व करना चाहती! पर फिर सोच में गुम!

फिर लड़की की दुनिया बदल गई

“कालेज में कितनी ही खूबसूरत लड़कियां हैं, शायद एक वह ही खूबसूरत नहीं?” कोई लड़का बुलाना तो दूर, देखता भी नहीं था उसे! उसे क्या पता? कि उसके पहलवान, घरेलू ड्राइवरों की पूरी दहशत थी , वहाँ! पर दूसरी तरफ सच्चाई ये भी है कि इन बंधनों या डर से तो जवान दिलों का आकर्षण और भी बढ़ जाता है। परन्तु अभी कहीं दिखा नहीं था, बस!

चलो एक साल, दूसरा साल बहुत बढ़िया गुजरा । परन्तु एक दिन एक हल्के से झोंके ने उस लड़की को महका दिया। लड़की की दुनिया बदल गई। पर बिन दिखावे के खुद की नजरों से छुप कर कभी फूलों तो कभी तारों की ओट में दो मन मिलने लगे। पहरे बाहर थे पर मन पर कोई पहरा लगा के दिखाए? दूसरी तरफ शातिर, विरोधी बंदूक नजरें शिकार की बू सूंघने लगीं थीं।

प्रेमी दिलों में क्रांति का बिगुल बज चुका था

प्रेमी दिलों में क्रांति का बिगुल बज चुका था। और बिटिया नहीं, लड़की को अहसास हुआ कि घर की तरफ से मिली ये पहरे की आजादी गर्व की भेंट नहीं अपितु शक, अविश्वास की देन है। एक भयानक, खौफनाक शांति। जिसमें ढोंग था परन्तु एक चावल के दाने जितना भी उस पर विश्वास नहीं था। अब तो वो समझदार थी, पढ़ी-लिखी।

औरत के कारण नजर झुकनी नहीं चाहिए

उससे पूछा जा सकता था, सुना जा सकता था! पर नहीं, एक बेटी से पहले वह थी तो एक औरत ही ना! जिसके कारण नजर झुकनी नहीं चाहिए। और इस धर्म युद्ध में उसे अहसास हुआ कि वह ऐसे ही अपने आपको इस घर की बेटी समझती रही वो तो वास्तव में केवल औरत और इज्जत है। और इस भाव में भी उनके व्यवहार से एक निर्जीव सा अहसास झलकता था।

घरेलु ड्राइवरों की नज़रें किसी अवांछनीय घटना के अहसास से खबरदार हो चुकी थीं । पिता के कहने पर चाचा, ‘इज्जत को मर्यादा’ में रहने के लिए बोलता है। पहली धमकी का वारंट दोषी को मिल गया था। पर बात बनते न देख कॉलेज की पढ़ाई छुड़वा कर प्राइवेट पढ़ाई के लिए दाखिला दिलवा दिया गया। फिर दादा के मुँह से किसी और को सुनाते हुए दूसरी गर्ज़ भरी धमकी का वारंट निकला। लड़की सब समझती थी।

आज वो न तो बिटिया, न ही लड़की दिख रही थी

प्यार से रोकते तो अपनेपन की आँच में शायद क्रांति की ज्वाला ठंडी ही हो जाती पर अब कोई भी मुड़ने वाला नहीं था। और एक रात युद्ध छिड़ गया, प्यार ने पुष्प कमान पर तीखे बाण चलाए और इसके बदले में चले तेज धार हथियार! बुजुर्ग औरतों की चढ़ी त्यौरियाँ आज आग की वर्षा कर रही थीं ।

भैस के कीले के साथ एक निरीह लड़के की देह बंधी पड़ी थी। क्योंकि वह गरीब था इसलिए अनाथ ही समझिए। कोई उसके पीछे आने वाला नहीं था। और जिस बेटी ने कभी अपने पिता के चरण स्पर्श नहीं किए थे आज वो उन्हीं पैरों को पकड़ पवित्र प्यार की दुहाई देकर नयनों की गंगा जमुना से पिता के चरणों को धो रही थी। पर पिता को आज वो न तो बिटिया, न ही लड़की दिख रही थी और न ही इज्जत का प्रतीक।

कलंक की निशानी न बचे

वो तो बस घर के बाहर लटकती सुनहरे अक्षरों की नेम प्लेट सी लग रही थी जिस पर किसी के कहने भर से कालिख लग गई और इसको ठीक करने का उपाय उस तख्ती को साफ न करके बस अग्नि में स्वाहा करना था। ताकि कलंक की निशानी न बचे।

वो कौन सा बच्चे थे? वे बालिग थे! योजनाएँ बना कर ही वह आगे बढ़ रहे थे। मर्यादा भंग करने की कभी सोची न थी। पर इस बारे में कोई सोचे तो ही समझेगा ना। उधर उन महारथियों पर तो खून सवार था जिनके अनुसार प्रेम करना भूल नहीं अपितु भयानक अपराध है। परन्तु एक बाप अपनी बेटी को इतना दुख नहीं दे सकता था, इसलिए वो अभी भी अपने पिता के चरण धो रही थी! नहीं! आँसू खत्म हो चुके थे। हाँ! गर्म खून की धार से। जिसमें परिवार का कलंक धुल गया था।

माँ का कलेजा भी वहीं कहीं आँगन में सिसक-तड़प रहा था और वो भगवान को उलाहना देना चाहती थी कि बेटी से तो अच्छा था माँ ही न बनती। कहीं से उसकी दशा देख मिर्च के लेप सी आवाज़ आई। “असली कुल्टा यही है। इसकी माँ ।” इस आवाज के बाद हाँ, अब सब ठीक था । घर वालों की कोई गलती नहीं! दोषी कौन? वो माँ! और सब बरी हो गए ।

अंधेरे के बाद सुबह हुई, आम सुबह जैसी सुबह! आँगन में सब काम रोज की तरह सब पवित्र, पावन। क्योंकि पाप को अंधेरे ने निगल लिया था। कल तक कहलाने वाली माँ उस आँगन में नर्म मिट्टी में पौधा रोप रही थी। पति ने कुछ कहना चाहा पर पौधे को खारे आँसू से सींचती माँ को उसके हाल पर छोड़ दिया। पति सोच रहा है कि सौदा फायदे का रहा कि हानि का?

क्रूर मन मंथन कर रहा था और निष्कर्ष पर पहुंचा कि समाज में एक बाप कहलाने भर के लिए इस बेटी को स्वीकारा था। ताकि लोगों के मुँह बंद किए जा सकें। अगर इस लड़की के कारण और मुँह खुलने लगते तो सम्मान, इज्जत धूमिल हो जाती। और ये सोच उस परवरिश का नतीजा थी जिसमें औरत को केवल औरत ही माना जाता है।

क्या आपको पता है कि ये हत्याएँ, कत्ल अपने ही बच्चों के किस नाम पर होते हैं? तो उसके लिए भी संज्ञा प्रचलित है। जैसे कि ‘सम्मान रक्षा हेतु हत्या’ , ‘गौरव रक्षा हेतु हत्या’ आदि। और इन संज्ञाओं को देने वाले अपने कानून को मानते हैं, बस। जबकि संविधान बालिग़ को वोट के साथ-साथ अपने मर्जी के जीवन साथी से शादी की इजाजत भी देता है। जो कि कानूनी अधिकार है। परन्तु गाँव की पंचायतों या धर्म जाति के ठेकेदारों के मौखिक कानून उनके लिए सर्वोत्तम, सर्वोच्च हैं।

परन्तु काश! हम इस झूठे गर्व से बाहर निकल अपने बच्चों के मित्र बनें, ऊपरी दिखावा न करें । अपनी सोच और बच्चों की सोच का तर्क, वैज्ञानिकता, कानून के आधार पर मूल्यांकन करें । तो शायद हम खुद के संस्कारों पर विश्वास कर पाएं।

मूल चित्र : Canva Pro 

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