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एक हार थी मैं स्वर्ण का – तूने देखा, परखा, ख़रीदा

"अगर मन से, उतर ही गई थी, कुछ दिन, रख कर छोड़ देता, शायद फिर, तेरे मन को भा जाती"- कई बार हमारी स्तिथि भी एक स्वर्ण-हार सी हो जाती है। 

“अगर मन से, उतर ही गई थी, कुछ दिन, रख कर छोड़ देता, शायद फिर, तेरे मन को भा जाती”- कई बार हमारी स्तिथि भी एक स्वर्ण-हार सी हो जाती है। 

एक हार थी मैं स्वर्ण का,
तूने देखा, परखा, ख़रीदा।
वो तेरी निगाहों का चमकना,
लगा मुझे गले, तेरा इठलाना।
फिर ना जाने तूने, मुझे क्यों पैर पर लगाया,
बांध कर उसे, क्यों कर पायल बनाया।
क्या तुझे मालूम न था, फ़र्क स्वर्ण और चांदी का,
ना मैं रही हूं हार, और ना ही बन सकी हूं पायल।
अगर मन से, उतर ही गई थी,
कुछ दिन, रख कर छोड़ देता,
शायद फिर, तेरे मन को भा जाती।
फिर भी, अगर मन ना थी भाई,
तो हार ना सही, बाजूबंद ही बनती।
गले में ना सही, कम से कम,
मैं बाजू ही में सज तो जाती-
एक हार थी मै स्वर्ण का।

मूल चित्र: Pexels

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