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सदियों से देह, देहरी और दीया के इर्द-गिर्द घूमती रही है स्त्री! खुद को सजा कर संवार कर और संभाल कर रख क्योंकि तू देह है....और कुछ भी नहीं!
सदियों से देह, देहरी और दीया के इर्द-गिर्द घूमती रही है स्त्री! खुद को सजा कर संवार कर और संभाल कर रख क्योंकि तू देह है….और कुछ भी नहीं!
सुन स्त्री !
खुद को सजा कर संवार कर और संभाल कर रख क्योंकि तू देह है।
तेरे गालों पर, तेरे होंठों पर तेरी पेट पर, तेरी पीठ पर तेरी नाभि पर, तेरी कमर पर तेरे स्तनों पर, तेरे नितंबों पर तेरे ढके-छिपे हर अंग पर लालच भरी नजरों के सैकड़ों खंजर चुभेंगे बार-बार चुभेंगे और इस चुभन को तुझे सहना होगा आखिर तू देह जो है।
नहीं देखने हैं तुझे सपने कोई नहीं सजाने हैं ख्वाब कोई अपने लिए तू सीमित कैसे हो सकती है अपने तक? तेरा दायरा तो बहुत विस्तृत है तू मर्यादा है घर-परिवार, कुल-खानदान की गाँव और समाज की नहीं लाँघना है तुझे देहरी कभी भी डोली या अर्थी से पहले।
गर तू काम करती है घर के बाहर भी तो घर लौट आना संध्या होने से पहले क्योंकि तू सौभाग्य है घर की तुझे करनी है सबकी मंगलकामनाएं जलाकर संध्या दीया-बाती। तू लक्ष्मी है, अन्नपूर्णा है थाली में अन्न भी तुझे परोसना है और बिस्तर पर अपना देह भी।
कुछ इस तरह से हमारे समाज में घूमती रही है स्त्री देह, देहरी और दीया के इर्द-गिर्द।
मूल चित्र : mediamagus from Getty Images via Canva Pro
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