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सुधा ने अपने पति की तरफ देखा तो वो भी यही चाहते थे। सर झुका कर सुधा ने भी अपनी मौन स्वीकृति दे दी। और वो करती भी क्या...
सुधा ने अपने पति की तरफ देखा तो वो भी यही चाहते थे। सर झुका कर सुधा ने भी अपनी मौन स्वीकृति दे दी। और वो करती भी क्या…
अपने पति की जलती चिता के सामने बैठी सुधा, रोते-रोते याद कर रही थी 25 साल पुराने दिन।
ऐसा लगा जैसे कल ही की तो बात थी, जब वह शादी करके अपने पति के साथ ससुराल आई थी। हर सुबह जब अपनी सासू माँ और दादी सास के पैर छूती तो बस एक ही आशीर्वाद मिलता, “बहू, अब जल्दी से पोते का मुंह दिखा दो।”
भगवान की कृपा से कुछ दिनों बाद ही सुधा ने माँ बनने की खुशखबरी सुनाई, घरवाले खुशी से नाच उठे। सुधा का बहुत ख्याल रखा जाने लगा।
तीन महीने बाद एक दिन सासू माँ बोली, “एक बार जाकर उस डॉक्टर से पता तो करवा लो कि घर में पोता ही आने वाला है ना, और अगर डॉक्टर कहे कि लड़की है, तो अबॉर्शन करवा कर ही घर आना। आखिर माता-पिता की चिता को मुखाग्नि तो बेटा ही देता है ना। हमें तो खानदान का वारिस ही चाहिए।”
सुधा ने अपने पति की तरफ देखा तो वो भी यही चाहते थे। सर झुका कर सुधा ने भी अपनी मौन स्वीकृति दे दी।
अगले ही दिन जाकर जांच करवाई और लड़की होने पर अबॉर्शन करवा लिया। दूसरी बार भी जब सुधा गर्भवती हुई तो फिर लड़की होने के कारण अबॉर्शन करवा दिया गया।
अब जब तीसरी बार सुधा गर्भवती हुई तो पूरे घर में मन्नते माँगी जाने लगी। आखिर तीन महीने बाद जब जांच करवाई तो गर्भ में लड़का ही था। पूरे घर में खुशियों का माहौल छा गया। नौ महीने बीतने पर जब बेटे ने जन्म लिया तो खूब उत्सव – आनंद मनाया गया और उसका नाम रखा गया ‘चिराग’।
खूब लाड़ प्यार के साथ चिराग की परवरिश की गई। बहुत ही अच्छे और महंगे स्कूल व कॉलेज से चिराग ने अपनी पढ़ाई लिखाई पूरी की। आज चिराग एक नामी कंपनी में बड़ा अफसर है।
अब कोरोना महामारी चारों तरफ फैली हुई है और इसी बीमारी की चपेट में सुधा के पति भी आ गए। बेटे चिराग ने तो साफ मना कर दिया, “माँ, पिताजी को घर पर रखना सुरक्षित नहीं है, उन्हें अस्पताल में भर्ती करवा दीजिए।”
एक दिन भी बेटा माँ से मिलने नहीं आया। अकेले सुधा ही सब करती रही। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था, सुधा जी के पति की मृत्यु हो गई।
सुधा ने बेटे को फोन किया, “बेटा तेरे पिताजी अब नहीं रहे। उन्हें यहां से सीधा मुक्तिधाम ही ले जा रहे हैं, तू वहीं पहुंच जाना।”
बेटे ने रुखा सा जवाब दे दिया माँ, “माँ कैसी बात कर रही हो? पिताजी की मौत कोरोना से हुई है। मेरे सामने तो अभी पूरी जिंदगी पड़ी है, मैं मुक्तिधाम नहीं आ सकूंगा।”
“बेटा मैं समझती हूँ, हम हर चीज़ का ध्यान रखेंगे, तू कोशिश कर के पहुँच तो। अगर तू नहीं आएगा तो तेरे पिताजी को मुखाग्नि कौन देगा?” तब चिराग ने बिना कुछ सुने ही फोन काट दिया।
जैसे तैसे सुधा अपने पति के शव को लेकर मुक्तिधाम पहुंची। वहां उन्होंने देखा, सेवा-संगठन नाम से लड़कियों का एक समूह लोगों की सहायता कर रहा है।
उनमें से दो लड़कियाँ आगे आयीं और कहने लगीं, “आंटी, हम आपकी मदद करते हैं।”
उन दोनों ने सुधा के पति को मुखाग्नि दी। सुधा अपनी दोनों अजन्मी बच्चियों को याद कर रोने लगी और सोचने लगी क्या इसी दिन के लिए घर के वारिस को जन्म दिया था? शायद जो पाप हमने किया था यह उसी की सजा है।
अपनी हकीकत देख वो ज़ोर से चीख पड़ी, “आपके जाने के बाद तो मैं अकेली हो गई…”
इस समाज से सिर्फ यही सवाल पूछना चाहती हूँ कि क्या मुखाग्नि देने का हक सिर्फ बेटों को होता है? बेटियाँ अपने माता पिता को मुखाग्नि नहीं दे सकतीं? क्या बेटों से हमारी उम्मीदें कुछ ज़्यादा हैं?
यहाँ किसका कितना कसूर है? सोचें…
मूल चित्र: Still from Short Film That Gutsy Morning/Large Short Films, YouTube
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