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हमेशा एक सांचे में, क्यों हमें ढाल दिया जाता है? एक अच्छीऔरत होने के मापदंड किसने मान्य किये हैं? और क्यों? किसके ये हक़ दिया उनको?
“मैं मायके चली जाऊँगी, तुम देखते रहियो!”, अपने ज़माने का मशहूर गाना है। लेकिन, क्या कभी सोचा है कि अपनी इम्पोर्टेंस जताने लिए इतनी मशक्कत क्यों? अपनी जगह बनाने के लिए, पहले एक रिक्तता, दिखाने की क्या ज़रूरत?
क्या हम सिर्फ गैप फिलर्स हैं? हमारी अपनी जगह, क्यों नहीं है? हमेशा एक सांचे में, क्यों हमें ढाल दिया जाता है?
अगर जो उस सांचे में न ढले तो फिर सारा वर्चस्व, सब वजूद मिट्टी पलीद?
क्या हुआ, अगर मुझे धीरे से हंसना नहीं आता, रोटियां मेरी गोल नहीं बनती, मैं नाज़-नख़रे करना नहीं जानती?
क्या हुआ, अगर मैं लेना जानती हूँ, देना नहीं?
क्या हुआ ,अगर मैं थोड़ी स्वार्थी हूँ?
क्या हुआ, अगर मेरी अपनी पसंद हैं?
और क्या ही हुआ अगर मुझे अपने पसंद के लिए बोलना आता हो?
क्या हुआ अगर मेरे बच्चे की डिलीवरी नार्मल नहीं हुई?
क्या हुआ, अगर मैं अपने बच्चे को ब्रेटफीड नहीं करवा पायी?
एक अच्छी औरत होने के मापदंड किसने मान्य किये हैं? और क्यों?
मैंने अक्सर, कई औरतों को, बोलते सुना है, “जब नहीं रहूंगी, तब देखना!”
क्या ‘कुछ होने’ के लिए ‘नहीं होना’ इतना ज़रूरी है?
मूल चित्र : Canva
अब तू ही बतला दे ना माँ, क्या इतनी बुरी हूँ मैं माँ?
हर बार की तरह बस एक ही सवाल – अपना सम्मान बचाने कहाँ मैं जाऊं?
आखिर कब तक नारी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेगी? आखिर कब तक?
‘लड़की है ना?’ और कुछ ऐसे सवाल जो गुंजन सक्सेना देखते हुए मेरे मन में उठ रहे थे…
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