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कोरोना

ज़रा पूछो उनसे, जिनके सर पे छाँव नहीं। और अब लौटने को बचा, गाँव नहीं।

ज़रा पूछो उनसे, जिनके सर पे छाँव नहीं। और अब लौटने को बचा, गाँव नहीं।

कैसी मुश्किल घड़ी ये, आई है।
जिसने हर तरफ हाहाकार, मचाई है।

ना गुहार सुनने वाला, आसमान है।
ना पुकार लगाने को, बच रहा इंसान है।

जाने कहाँ से शुरू हुआ, कहाँ तक जाएगा?
जाने किसके हिस्से का पाप, कौन निभाएगा?

शून्य सा हृदय है, सबका
हर मन में एक नया, सवाल है।
कोई कहता इंसान नहीं, अपने कब्ज़े में
इसलिए बिखरा हुआ, संसार है।

कोई कहता कुदरत भी थक गई, सहते-सहते
उसके क्रोध का ये, परिणाम है।

हो गई दुनिया खाली, जिन अपनों को खो के।
ना लौटेंगे कभी वापस, क्या होगा अब रो के।

फ़िर भी आधी दुनिया, खोई हुई है।
मलमल की चादर में, सोई हुई है।

बोर हो गए हैं, घर में रहकर
शिकायतें करना, बहुत आम है।
फ़िर चल दिए खा-पी कर सोने
क्योंकि बच गया, बस इतना सा काम है।

ज़रा पूछो उनसे, जिनके सर पे छाँव नहीं।
और अब लौटने को बचा, गाँव नहीं।

बाहर ना जाना, कोरोना खा जाएगा!
अंदर मची, भूख की मार से, कौन सा तू बच पाएगा?

बचाना है इस वक़्त तो, इंसानियत को बचाओ।
बाहर नहीं अपने भीतर, बदलाव लाओ।

माना मुश्किल है घड़ी, कुछ नहीं हाथ में।
छूट गए हैं जो पीछे, ले लेते है उन्हें साथ में।

कुछ रिश्ते कशमकश में, भूल गए थे।
आज उनको भी अपनी. याद दिलाएं।

एक छोटी सी बात पे जो, रूठ गए है।
चलो उन्हें भी, फिर से मनाएं।

अपना पेट भरने को बहुत कमाया।
चलो दो रोटी की ख़ुशी से, खुद का पेट भर आएं।

पल भर के लिए दुनियादारी सब भूल के
चलो एक हसीं, एक दुआ अपने भी, घर ले आएं।

मूल चित्र: Canva

 

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