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पुरूष केवल एक भूमिका निभाते हुए, कर्मठ, मज़बूत साबित होता है और महिलायें न जाने कितनी भूमिकाओं में लिप्त हैं और फिर भी अबला और कमज़ोर कहलाती हैं।
अभी विदाई का दर्द झेला है और मोड़ में मुड़ते ही खुशी की आगोश में गले तक डूबे देवर, ननंद, सास और ससुराल वालों के सामने मुस्कुराने की विवशता।
इस कविता के माध्यम से सरोज जी ने अपने मन की बात हम सब के साथ साझा की है - तब का वक़्त और आज का वक़्त...जाने उनके इस दृष्टिकोण को!
मेरी यह बात कई लोगों को बहुत बुरी लगेगी, मगर वास्तव में अगर सोचा जाए कि इतने सारे त्यौहारों के बीच यदि एक दिन सिर्फ प्यार के नाम है भी तो इसे रहने दें।
सच कहूँ तो तुम्हारी पूरी जमात डरती है स्त्री से, जो अपने निर्णय स्वयं लेती है और अपनी ग़लतियों को सहेज कर, उनका श्रृंगार करती हैं।
हमको कई प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं, इनमें से एक है समानता का अधिकार, मुझे इस समानता का अर्थ तो बखूबी पता है, मगर मैं इसको कहाँ ढूँढूँ?
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