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आस पास के माहौल को देखकर मन की बात करती हूँ.
सोच को बदलने का समय आ गया है, कमजोर नहीं सशक्त बनने का समय आ गया है, सिर्फ परिवार नहीं उसका स्वाभिमान भी सब पर भारी है।
मेरे ससुराल वाले मुझे दहेज के लिए प्रताड़ित करते थे। पापा ने कितना कुछ उन्हें दहेज में दिया था। फिर भी उनकी डिमांड बढ़ती जा रही थी...
एक दिन उसे ऐसे खिलखिलाकर हँसते देख जेठानी ने बहुत बहुत डाँटा था। उनका कहना था कि बहुएं इतनी जोर से नहीं हँसती हैं।
वह अपनी जिंदगी की मालकिन खुद है कोई और नहीं। त्याग और तपस्या की बलिबेदी पर उसने बहुत कुछ खोया है। अब नहीं!
वे लोग जब मेला में घूम रही थीं तो भैया को अपने दोस्तों के साथ लड़कियों पर कमेंट्स करते देखा। उसके भैया सामने बहनों को देख अचंभित थे।
घर की देहरी भी लांघती हैं तो दूसरे की खातिर। स्वयं में स्वयं को तलाशना भी भूल जाती हैं...ऐसी भावुक भी होती हैं ये लड़कियाँ...
अब उसने सोच लिया कि वह अपने खोए हुए आत्मसम्मान को लौटा लाएगी, वह भी सालों इस घर की जिम्मेदारी निभाती आयी है बदले में सम्मान ही तो चाहिए उसे।
क्यों औरत खुलकर अपनी भावनाओं को दूसरे के सामने नहीं कह पाती? क्यों वह सतायी हुई औरत कहलाना पसंद करती है? वह एक जीवित इंसान है या एक आकृति?
कहते हैं माँ के पैरों के नीचे जन्नत है, यह बात कितनी सार्थक लगती है क्योकि माँ जैसी हस्ती दुनिया में है कहाँ, नहीं मिलेगा वो दिल चाहे ढूंढ ले सारा जहाँ...
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