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बातों की लड़ी बस टूटती, लचकती, ठहरती यूं ही चलती रहतीं है, रूठना-मनाना, गुड-मार्निंग, गुड-नाईट लॉग डिस्टेंस को जोड़ती यही तो ठोस कड़ी हैं।
आजकल एक अलग इश्क़ जी रही हूं, लॉन्ग डिस्टेंस में रहकर नजदिकियों वालीं कविताएं लिख रहीं हूं। अच्छा, ये भौगोलिक दूरियों वाली सोहबत क्लिशे सी लगे शायद! पर क्या खाएं? कहां गए? किस से मिले? से आगे की बातें भी बुन रही हूं।
ठहरों, और भी बातें होती हैं हमारी, विडियो-आडियो कॉल लॉग साखी हैं सारी। जैसे कि तुम्हारे राज्य में सीएम का कैंडिडेट हैं कौन-कौन? कोविड प्रोटोकॉल के पालन पर कैसे सब रहते है मौन।
मौसम में असमानताएं कितनी भीषण है, यह भी डिस्कस होता है, ठंड से बढ़ती कंपकंपी को बातों की चासनी से सहलाया जाता है। तुमने चाय पीनी कम कर दी, चीनी कम लेने लगें हो? बनाने का आलस है या सरकारी ही गटक जातें हो।
इतना चलने लगें हों, अरे सेहत का ध्यान हैं भी कि नहीं, मुठ्ठी भींच जब उंगलियां मिलती नहीं है तुम्हें मेरी। मुझे पता है, तब फोन पर बातें करतें पहुंचने की जल्दी क्यों रहती नहीं तुम्हें। मेरे सेंटी होने पर ‘जल्दी मिलूंगा तुमसे’ की घूंट पिलाते हों, हलक तक अटक लौट जाते हैं शब्द तुम्हारे भी, फिर काम-काज और वर्क प्रेशर का गीत गाते खुद को सुला जातें हों।
और भी बातों में कुछ बातें तो सदा टिपिकल ही रहतीं हैं, जैसे, जब भी फ़ोन करूं नंबर तुम्हार बिज़ी ही मिलता है। मिस्ड कॉल की लड़ी जो न टूट पाएं तो संयम का बांध निरस्त होता जान पड़ता है, फोन नहीं उठाया मेरा, हूह् बात नहीं करनी अब तुमसे।
और जो फिर तुम जवाब न दो, कहर क्यूं न बरसे? मैसेज और हां-हूं में ही सही, ‘ठीक है सब’ मन जानता है। बातें से बोरियत जो हो एक-दो दिन का ब्रेक भी बनता है, बातों की लड़ी बस टूटती, लचकती, ठहरती यूं ही चलती रहतीं है, रूठना-मनाना, गुड-मार्निंग, गुड-नाईट…लॉग डिस्टेंस को जोड़ती यही तो ठोस कड़ी हैं।
इमेज सोर्स : primipil via Canva Pro
A researcher, an advocate of equal rights, homemaker, a mother, blogger and an avid reader. I write to acknowledge my feelings. I am enjoying these roles. read more...
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