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मुझे उस दिन लगा, काश! मैं लड़का होती…

ऑफिस से घर आकर मम्मी खाना बनाती और अगर पापा सब्ज़ी काटते तो दादी कहतीं, "हमने कभी अपने लड़कों से काम नहीं करवाया, अब तो बेचारे! सब करते हैं।"

ऑफिस से घर आकर मम्मी खाना बनाती और अगर पापा सब्ज़ी काटते तो दादी कहतीं, “हमने कभी अपने लड़कों से काम नहीं करवाया, अब तो बेचारे! सब करते हैं।”

12वीं की परीक्षा हो चुकी थीं और सभी की तरह मैं भी इस बात से चिंतित थी कि आगे क्या करना है?

जबकि मैं बहुत पहले ही अपने मन में यह स्पष्ट कर चुकी थी कि मैं क्या करना चाहती हूँ। कई बार मैंने यह बात अपने घरवालों के कानों में परोक्ष रूप से डाली थी कि मैं मीडिया में जाना चाहती हूँ।
मुझे कहीं न कहीं ये ज़रूर लगता था कि उनको कैसे कहूं? उनसे सामने से कैसे बात करूं इस बारे में? और फिर मेरे घर के आसपास कोई ढंग का कॉलेज नहीं हैं, तो ज़ाहिर सी बात है कि उन्हें मुझे बाहर भेजने में कोई दिक्कत हो या वो मना ही कर दें!

मुझे लगा उस दिन काश! मैं लड़का होती…

कई सवाल उठे, जैसे, अगर उन्होनें मना कर दिया तो फिर मैं क्या करूंगी पर ये तो मेरी ज़िंदगी है न? क्या मैं ये भी तय नही कर सकती कि मैं क्या करना चाहती हूँ? उसके लिए भी मुझे सबसे पूछना पड़ेगा?

मुझे बहुत परेशान कर रहे थे फिर भी मैं रिसर्च कर रही थी कि कैसे, कहाँ कौन से कॉलेज में अप्लाई करना है। जब ज्यादा सोचने की वजह से बहुत परेशान हो जाती तो अपने पास रह रहे लोगों को, जो हमउम्र ही थे उनसे कहती तो वे सबसे पहले  चौंक कर पूछते, “घरवाले जाने देगें बाहर?”

मैं जब उनसे तेज़ आवाज़ में कहती, “क्यों नहीं जाने देंगे?”

तो वे सकपका कर कहते, “नहीं, मतलब लड़कियों के लिए सेफ नहीं है न मीडिया फील्ड और बाहर भी कहाँ सेफ है।”

मुझे इस कोर्स में एडमिशन लेने में कोई तकलीफ नहीं हुई और मुझे ज्यादा जद्दोजहद भी नहीं करनी पड़ी पर जो कॉलेज मैंने सोचा था, जहाँ मुझे एडमिशन लेना था मैं वहाँ एडमिशन नहीं ले पाई और एक वीमेंस यूनिवर्सिटी में मुझे एडमिशन लेना पड़ा क्योंकि ‘ज़माना बहुत खराब है’।

मुझे लगा उस दिन कि काश! मैं लड़का होती…

अब लड़का-लडकी में फर्क कहकर नहीं किया जाता है पर कहीं न कहीं ज़रूर किया जाता है। इसकी शुरुआत घर से ही होती है, जैसे- मम्मी-पापा दोनों का जॉब करना पर घर आकर मम्मी का खाना बनाना और अगर पापा मदद करने के लिए सब्ज़ी काट दें तो दादी का ये कहना, “हमने कभी अपने लड़कों से काम नहीं करवाया, अब तो बेचारे! सब करते हैं। घर का भी करें और बाहर का भी।”

कभी-कभी मुझ से कहना, “सीख लो घर के काम भी। किसी के घर जाओगी तो कैसे करोगी?”

और मेरा वापस उनसे पूछना, “किसी के घर जाना ज़रूरी है क्या? अपना खुद का घर भी तो हो सकता है और अगर जाऊँगी भी तो क्या काम करने के लिए?”

मुझे लगता है कि ये सारी शिक्षाएं बच्चों को बचपन में ही देनी चाहिए। कोई काम बँटा हुआ नहीं होता कि इसे लड़का करेगा और इसे लड़की। हम पुरुषों से आगे निकलने की होड़ में नहीं हैं, बस उनके बराबर आना चाहते हैं ताकि अपना मन मसोस के न रह जाएँ। पता नहीं कहीं हमें यहां जाने देगें या ये करने देगें कि नहीं जैसे सवाल हमारा जीना मुश्किल कर दें और हम महिला होने पर गौरान्वित न होकर सारा जीवन मलाल करते रह जाएं।

हमें अपनी लड़ाइयां खुद लड़नी पड़ेगीं । हिंदी पंक्तियाँ पर ममता कालिया लिखतीं हैं –

जैसे-जैसे लड़की बड़ी होती है
उसके सामने दीवार खड़ी होती है,
क्रांतिकारी कहते हैं
कि दीवार तोड़ देनी चाहिए।

पर लड़की है समझदार और संवेदनशील
वह दीवार पर लगाती है खूटियां
पढ़ाई-लिखाई और रोज़गार की।

और एक दिन धीरे से उन पर पाँव धरती
दीवार की दूसरी तरफ़
पहुंच जाती है। 

यह सच है और बहुत सी समस्याओं का समाधान भी। आपको क्या लगता है?

इमेज सोर्स: Still from I am pregnant/Short Film Teen Pregnancy, YouTube

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