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अगर ये घर दादा-दादी का है तो नाना-नानी का भी है…

आज अपनी बेटी के नौकरी छोड़ने की बात सुन दोनों बेचैन हो उठे, अपनी बच्ची को इस मुकाम तक पहुंचाने में बहुत कठिन तपस्या की थी। 

आज अपनी बेटी के नौकरी छोड़ने की बात सुन दोनों बेचैन हो उठे, अपनी बच्ची को इस मुकाम तक पहुंचाने में बहुत कठिन तपस्या की थी। 

“माँ, मैं नौकरी छोड़ रही हूँ। धैर्य को और कहीं नहीं छोड़ा जा सकता।”

“मैं तुम्हारी बात समझ रही हूँ दृष्टि, लेकिन जल्दबाजी में नौकरी छोड़ना उचित नहीं। कोई और रास्ता भी तो निकाला जा सकता है? अपने सास-ससुर से बात करो या फिर एक बार छुट्टियां बढ़ाने की विषय में ऑफिस में बात कर।”

“नहीं माँ, ऑफिस वाले नहीं मान रहे और अब मुझे कोई रास्ता दिख भी नहीं रहा। तुम्हें तो पता है मम्मी जी और पापा जी दोनों जॉब में हैं, तो वो आने से रहे मेरे पास। रहे आप दोनों, तो आपको अपनी बेटी की परेशानियों से ज्यादा, अपने नाती के परवरिश से कहीं ज्यादा ‘समाज क्या कहेगा’, इसकी चिंता है। अब ऐसे में मेरे पास बस यही रास्ता बचता है माँ।”

नाराज़ हो दृष्टि ने कहा तो रमा जी भी बिफ़र पड़ीं, “क्या इसी दिन के लिये तुझे इतना पढ़ाया-लिखाया था? तेरी नज़रो में तेरी मेहनत का कोई मोल नहीं? तेरा ये निर्णय मुझे मंजूर नहीं।”

इतने कह रमा जी ने फ़ोन रख दिया।

“क्या जरुरत थी दृष्टि से ऐसे बात करने की? अब वो कोई छोटी बच्ची नहीं रह गई”, अशोक जी, जो खुद अपनी बेटी के फैसले से आहत थे, ने अपनी पत्नी को टोका।

“जानती हूँ एक बच्चे की माँ बन गई है हमारी बेटी, लेकिन फिर भी है तो हमारी बेटी ही कैसे उसके उस फैसले में उसका साथ दूँ, जो वो भावना में बह ले रही है?”

रमा जी इस बात का कोई ज़वाब नहीं था अशोक जी के पास। कमरे में एक मौन सा पसर गया था।

दृष्टि, सिर्फ रमा और अशोक जी की बेटी नहीं थी उनका सपना, उनका गुरुर थी। पढ़ने-लिखने में होशियार अशोक जी के परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति ने उन्हें कम उम्र में ही पढ़ाई छुड़ा काम में लगा दिया था। मन में जो एक कसक रह गई थी पढ़ने की वो अपनी बेटी से पूरी करना चाहते थे अशोक जी और इसमें रमा जी का भी पूर्ण समर्थन था।

कम आय में भी अशोक और रमा कभी दृष्टि को किसी चीज की कमी ना होने देते चाहे वो महंगी किताबें हो या टूशन फीस। दृष्टि भी अपने पिता के सपनों को अपना मान हर इम्तिहान पार करती चली गई। बारहवीं के नतीजे जब आये तो दृष्टि ने पुरे जिले में टॉप किया था। जब जिलाअधिकारी ने दृष्टि को सम्मानित किया तो गर्व से भर उठे थे अशोक जी और रमा जी।

जैसी उम्मीद थी दृष्टि ने जल्दी ही इंजीनियरिंग एंट्रेंस पास कर लिया और देश के प्रतिष्ठित कॉलेज में उसका नाम भी लिखा गया। पढ़ने में तेज़ दृष्टि को स्कालरशिप मिलती थी लेकिन फीस के अलावा भी कई खर्चे थे जिसे सोच कभी कभी दृष्टि परेशान सी हो उठती।

“बेटा तू बस पढ़ाई कर बाकी सब हमपे छोड़ दे”, हर रोज़ अशोक, दृष्टि को समझाते।

दृष्टि अपने घर के हालत समझती थी और सिर्फ अपने लक्ष्य को ध्यान में रख मेहनत करती। अशोक जी ने भी अधिक इनकम के लिये डबल शिफ्ट में काम शुरू कर दिया। चार साल की कठिन मेहनत रंग लायी और पहले ही प्रयास में दृष्टि का चयन एक बड़ी कंपनी में बहुत अच्छे पैकेज के साथ हो गया।

“बस पापा, बहुत मेहनत कर लिया आपने और माँ ने अब आराम करने का समय है आप दोनों का”, जब दृष्टि कहती तो गर्व से भर उठते रमा और अशोक। बेटी के अच्छी नौकरी में आते ही घर के हालत भी बदल गए।

समय के साथ हर बेटी के माता-पिता के जैसे रमा और अशोक को भी अपनी बेटी की शादी की चिंता होने लगी और जल्दी ही दृष्टि की शादी उसके साथ ही काम करने वाले वरुण के साथ धूमधाम से हो गई। दो साल होते-होते दृष्टि माँ भी बन गई।

अब जब दृष्टि को अपने करियर की ऊंचाई छूने का समय आया था ऐसे में उसका नौकरी छोड़ने का विचार रमा और अशोक को आहत कर गया। अपनी जगह पे दृष्टि भी सही थी।

दृष्टि के लिये बहुत कठिन था साल भर के बच्चे को किसी अनजान के भरोसे छोड़ना। ऐसे में दृष्टि और वरुण चाहते कि अशोक जी और रमा जी उनके पास आ कर पुणे रहें। उनकी भी धैर्य के साथ रहने की इच्छा पूर्ण हो जाती ऐसे। अपने नाना-नानी के संरक्षण में धैर्य भी अच्छी परवरिश और संस्कार पाता, वहीं दृष्टि और वरुण भी निश्चित रहते लेकिन लोग क्या कहेंगे? हमारे समाज में बेटी के घर का पानी पीना भी मना है ऐसे में घर जा कर रहना…? बस यही सोच बेटी दामाद के घर जा कर रहने से रमा जी के पाँव रुक जाते।

लेकिन आज अपनी बेटी के नौकरी छोड़ने की बात सुन रमा और अशोक जी बेचैन हो उठे थे। अपनी बच्ची को इस मुकाम तक पहुंचाने में बहुत कठिन तपस्या की थी दोनों पति पत्नी ने। रात भर करवटे बदलती रमा सुबह होते होते एक फैसला ले चुकी थी। अगल दिन ही टिकट ले रमा और अशोक पहुंच गए पुणे। यूं अचानक अपने माँ पापा को सामने देख दृष्टि बहुत ख़ुश हो गई।

“देखा वरुण, मैं ना कहती थी मम्मी-पापा ज़रूर आएंगे”, जब  दृष्टि ने कहा तो वरुण भी हॅंस पड़ा।

“वो कैसे?” चौंक कर रमा जी पूछ बैठी।

“मेरी नौकरी छोड़ने की बात कहने से। क्योंकि मैं जानती थी बस ये इसी बात पे आप दोनों यहाँ रहने आयेंगे। आपको ये कैसे लग गया मम्मी-पापा कि आपकी बेटी आपकी तपस्या को भूल बैठेगी? लेकिन हां धैर्य की परवरिश से भी मैं समझौता नहीं कर सकती थी। बहुत कश्मकश में थी, डे-केयर कोई अच्छा है नहीं यहां और किसी अनजान के भरोसे…जॉब छोड़नी पड़ सकती थी मुझे”, कहते-कहते दृष्टि भावुक हो उठी।

“पापाजी-मम्मीजी, ये घर हम दोनों ने खरीदा है जितना हक़ इसपे मेरे मम्मी-पापा का है उतना ही आप दोनों का। फिर ये हिचक क्यों? धैर्य के लिए दृष्टि अपनी जॉब छोड़ दे इससे अच्छा तो ये होगा की आप दोनों धैर्य के लिए यहां रुको। और आप ये करना भी चाहते हो लेकिन…”

“लेकिन बेटा, बेटी के घर रहना क्या उचित होगा लोग क्या कहेंगे दामाद जी?”

“मम्मीजी कौन से लोग? जिन्हें सिर्फ बातें बनाना आता है किसी की परेशान या सुख-दुःख से जिन्हे कोई सरोकार नहीं। और फिर मम्मीजी , जब बच्चे को उसके दादा दादी पाल सकते हैं, तो नाना-नानी क्यों नहीं? उनका भी तो उतना ही हक़ होता है बच्चे पे।”

अपनी बेटी और दामाद की बात सुन रमा और अशोक जी मुस्कुराये बिना ना रह पाये। बात तो सौ फीसदी सही थी। बच्चे को जब दादा-दादी का संरक्षण प्राप्त हो सकता है तो फिर नाना-नानी का क्यों नहीं? रमा जी और अशोक जी के मन से सारी दुविधा दूर हो चुकी थी ख़ुशी-ख़ुशी उन्होंने धैर्य की जिम्मेदारी ले ली।

इमेज सोर्स: Still from MAA/Royal Stag Barrel Select Large Short Films, YouTube

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