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अब तो भगवान ही बचाए ऐसे रिश्तों से…

इस बार सासु मां ने फ़रमान जारी किया, "नीति, मीना के लिए तुम अपना वाला कमरा दे देना। तुम दो चार दिन मेहमानों वाले कमरे में एडजस्ट कर जाना।" 

इस बार सासु मां ने फ़रमान जारी किया, “नीति, मीना के लिए तुम अपना वाला कमरा दे देना। तुम दो चार दिन मेहमानों वाले कमरे में एडजस्ट कर जाना।” 

“मम्मी जी, ये बात समझतीं क्यों नहीं अमन? मायके वाले हैं तो क्या हुआ? बेवकूफ बनाते रहेंगे तो बनतीं रहेंगी? और हमें भी बनवाती रहेंगी? पर ये आखिरी बार है अब मैं बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने वाली कह देती हूं। अब मुझे कुछ बुरा लगा तो मैं मुंह पर बोल दूंगी, चाहे सामने वाला कोई हो। फिर मत कहना बताया नहीं!” अपने पति से बोलते वक्त नीति का चेहरा तमतमा रहा था।

“नीति बेबी इतना गुस्सा नहीं करते। तुम तो जानती हो ना मम्मी किन हालातों से…”

“उन्हीं हालातों की कद्र करते हुए अब तक चुप थी। पर मैं भी इंसान हूं, मेरी भी सीमाएं हैं अमन। ये वो क्यों नहीं समझतीं? पता नहीं वो इस बात को समझती नहीं या समझना नहीं चाहतीं।”

“अच्छा…अगली बार कुछ ऐसा हुआ तो मैं बात करूंगा मम्मी से। तुम यकीन करो मेरा। वो जिस रास्ते पर अंधभक्तों की तरह चल रही हैं ना अपने मायकेवालों के लिए, उन्हें खुद बहुत जल्द एहसास होगा कि वो ग़लत हैं। डोंट वरी अब सो जाओ”, अमन ने लगभग हाथ जोड़ते हुए कहा।

दरअसल नीति की शादी डेढ़ साल पहले ही हुई थी। पितृ विहीना नीति ससुरजी में अपने पिता को देखती और बेटी ना होने के कारण ससुरजी भी नीति को पिता जैसा प्यार देते। सासु मां अपनी मां जैसी भले ना हों, पर बुरी भी नहीं थीं पर उनकी सबसे बड़ी कमजोरी थी उनका मायका।

मां-पिता नहीं थे, तो सासु-माँ सबसे बड़ी होने के कारण स्वघोषित अभिभावक बन गईं थीं वह, दोनों बहनों और भाइयों की। मायके से कोई आ जाता तो उसके आगे वो किसी को महत्व नहीं देती थीं। ससुरजी को ये बात शुरू से पसंद नहीं थी, तो दोनों पति-पत्नी की किचकिच इसी बात पर होती रहती।

जबसे ससुरजी चल बसे, उसके बाद तो सासु माया देवी का निष्कंटक राज हो गया। आए दिन कोई ना कोई उनके मायके से आता और माया देवी उनसे गप्पे लड़ातीं। सामने वाला अपना दुखड़ा रोता तो उनकी हर तरह से मदद करतीं, मनपसंद चाय नाश्ते खाने का आर्डर करती रहतीं।

ये सब कुछ नीति इसलिए बर्दाश्त कर रही थी क्योंकि कहीं ना कहीं उसे एहसास था कि ससुरजी के जाने के बाद सासु मां कम-से-कम कहीं मन तो लगा रहीं हैं। दुखी होकर एक कोने में पड़ी रहतीं तो उसे भी कहां अच्छा लगता।

पर आज तो हद हो गई। माया देवी की तीसरे नंबर की बहन जो काफी अमीर घर में ब्याही गई थीं। वही आज अपनी बहन से मिलने आ रही थीं क्योंकि वो ससुरजी के क्रियाकर्म के वक्त आ नहीं पाई थीं।

तो इस बार सासु मां ने फ़रमान जारी किया, “नीति, मीना के लिए तुम अपना वाला कमरा दे देना। तुम दो चार दिन मेहमानों वाले कमरे में एडजस्ट कर जाना।”

यूं तो घर में तीन सोने के कमरे थे। एक माया का, एक मेहमानों का और एक नीति का। पर सबसे अच्छा कमरा नीति का ही था। कमरा बड़ा और सुसज्जित तो अमन की शादी से पहले से ही था, पर शादी के बाद ससुरजी ने उसमें ए.सी. लगाकर और नीति ने अपनी कारीगरी से कमरे को बहुत खूबसूरत और भव्य लुक दे दिया।

कमरा बदलने की बात से ही नीति मन ही मन आग-बबूला हो उठी। हर इंसान अपने अपने घरों में बड़ा आदमी ही होता है, पर जहां जाता है उसे उस हिसाब से सेट करना ही पड़ता है। एडजस्ट नहीं कर पाए तो दूसरों की बेइज्जती करने उनके घर भी ना जाए। बहुत कुछ बोलना चाहकर भी नीति ना बोल पाई और रात को भी वो वहीं भड़ास अपने पति पर निकाल रही थी।

बहरहाल, सुबह-सुबह बड़ी सी गाड़ी आकर रूकी। मौसी अकेली थीं, पर दो नौकर रामू और गौरी साथ में थे। ड्राइवर तो था ही। गहनों और मंहगी साड़ी से लकथक मीना मौसी मानों बहन के पास मातमपुरसी के लिए नहीं बल्कि किसी शादी ब्याह के पार्टी में शामिल होने आई हों।

उनकी हर अदा में नजाकत थी। रोने में, हंसने में, बोलने में, चलने में। कहते हैं दौलत दिखानी नहीं पड़ती खुद दिख जाती है, पर मौसी की हरकतें और वेश-भूषा उन्हें संपन्न कम बेवकूफ और फूहड़ ज्यादा दिखा रही थी।

माया ने नीति से सारा नाश्ता-खाना अपनी बहन की पसंद का बनवाया था, पर बहन को कद्र कहां थी? थोड़ा बहुत जैसे-तैसे मुँह बिचका खा कर उठ गई।

शाम होने को थी, माया देवी बहन को लेकर नीति के कमरे में गई और बोलीं, “मीना, दिन भर की बैठी-बैठी थक गई होगी। एक काम कर रामू या गौरी को बोल तेरा सामान गाड़ी से निकाल दे, तू कपड़े बदलकर थोड़ा सुस्ता ले। मैं नीति को बोलकर आती हूँ कि तुम्हारे और मेरे लिए चाय बनाकर ले आए।”

“दीदी, मैं तो आते वक्त फाइवस्टार होटल में अपना कमरा बुक कर सामान रखवाकर आई हूं। आप एक काम करो इस कमरे में गौरी और बाहर वाले में रामू और ड्राइवर को रखवा दो”, मीना ने कमरे पर उड़ती हुई नजर डालते हुए कहा।

माया देवी थोड़ी सकपकाई फिर बोली, “क्या बहन! दो-तीन दिन के लिए आई वो भी होटल में रहेगी। माना तेरी बहन गरीब है पर ऐसी भी नहीं कि अपनी बहन को ना रख सके। खैर, कोई बात नहीं तुझे जहां सुविधा हो वहीं रह, पर याद रखना वहां का बिल तू नहीं भरेगी। बेटा कमाता है ना, वो देगा।”

बिना ज्यादा मान-मनुहार के मीना मौसी मान गई। नीति का चेहरा देखकर ही माया समझ गई कि उसे टोकना खतरे से खाली नहीं है, तो चुपचाप बेटे को कोने में ले जाकर अपना वास्ता देकर मना लिया। पर एक अच्छी बात हुई कि माया ने गौरी को अपने कमरे में सुलाकर नीति का कमरा उसके हवाले कर दिया।

दो दिन तक मेकअप और जेवरों की दुकान मौसी की सुबह से शाम तक आवभगत करती नीति के लिए मौसी के मुंह से एकबार ना निकला, “वाह! दीदी बहू तो बड़ी अच्छी पाई है आपने।”

मौसी की अपने घर, पति, बच्चों और संपत्ति की इकतरफा आत्ममुग्धता वाली कहानियां दो दिन से सुन-सुनकर माया देवी भी उकता सी गई थी। उस पर से तीन-चार बाहरी आदमी की घर में लगातार घुड़दौड़।

अगले दिन जैसे ही मीना मौसी ने निकलने की बात की, माया तुरंत तैयार हो गयी। माया ने मीना के लिए एक मंहगी सिल्क साड़ी पहले से मंगवा रखी थी और भी उनकी पसंद के कई छोटे-बड़े सामान और उनकी पसंद की ढेर सारी मिठाईयां मिला रखी थीं। कुल मिलाकर एक पेटी सामान तो हो ही गया।

“अरे दीदी! इन सबकी क्या जरूरत थी?” मीना मौसी ने औपचारिकता निभा दी।

गाड़ी स्टार्ट हो गई। बैठने के बाद जैसे मौसी को कुछ याद आया, वह उतरी, पर्स खोला। सड़क पर ही नोट का बंडल निकालकर उसमें से तीन पांच सौ रूपए के नोट निकाले और ब्रांडेड पर्स के आगे वाली पाॅकेट से इक सिक्का निकाला।

वो रुपये मोड़कर नीति के हाथ में थमाकर बोलीं, “नीति, तुम्हारे लिए कुछ नहीं ला पाई। कोई नहीं, फिर आती हूं। अभी ये रहा तुम्हारा शगुन।”

अचानक जाने माया को क्या सुझी, शगुन मान एक रूपए का सिक्का नीति के हाथ में छोड़ उससे पांच सौ के तीनों नोट लेकर एक ड्राइवर, एक रामू और एक गौरी के हाथ में थमा दिया।

मीना थोड़ा ठिठकी, पर दूसरे ही क्षण सामान्य हो गई। उस पर कोई प्रभाव भी ना पड़ा। पर नीति और अमन हतप्रभ थे मां का ये रूप देख।

“समझती क्या है अपने आपको? अमीर होगी अपने लिए। हमें भिखारी समझ रखा है क्या? मेरी इकलौती बहू को यूं खुल्ले पंद्रह सौ रूपए थमाते हुए शर्म नहीं आई? शगुन देने का ये कौन सा तरीका हुआ? अरे अमीर तो वो है जो दिल के अमीर हैं। ऐसे अमीर तो अमीर के नाम पर कलंक हैं। जिनके हाथ से दूसरों के लिए कौड़ी भी मुश्किल से निकलती है। पहले जीने का ढंग तो सीख ले। ऐसे लोगों से तौबा…बहन है तो क्या हुआ? यूं सड़क पर हमारी बेइज्जती करेगी?”

कार आंखों से ओझल होते ही गुस्से में बुदबुदाती माया घर के अंदर चल दीं। पीछे आते हुए नीति और अमन ने ये बातें सुनीं। तो अमन ने आंखों-आंखों में कहा-देखा, एहसास हुआ ना मां को, तो नीति भी चैन की सांस लेती हुई मुस्कुरा दी।

इमेज सोर्स: Still from Happy Diwali – Badlaav Humse Hai/ AU Small Finance Bank ad/YouTube

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