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मधुबनी पेंटिग की कूंचियों से नव रंग भरनी हैं पद्मश्री दुलारी देवी

क्या आप जानते हैं पद्मश्री दुलारी देवी कभी स्कूल नहीं गईं और एक समय ऐसा था जब वह झाड़ू-पोछा करके अपने परिवार का पालन-पोषण करती थीं। 

क्या आप जानते हैं पद्मश्री दुलारी देवी कभी स्कूल नहीं गईं और एक समय ऐसा था जब वह झाड़ू-पोछा करके अपने परिवार का पालन-पोषण करती थीं। 

किसी भी संस्कृति की पहचान खान-पान, वेष-भूषा, बोली, गीत-संगीत, चित्रकला के साथ-साथ अन्य कई कलाओं से होती है, जिसको न केवल जीवित रखने में एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक हस्तातंरित करने में स्त्रियों ने काम किया है। यह कहना कहीं से गलत नहीं होगा सदियों से महिलाओं ने अपने ओज से केवल राष्ट्र के निमार्ण और विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। महिलाओं ने भारतीय संस्कृति और उसमें हो रहे बदलावों,  मिली-जुली सामासिक संस्कृति को न केवल सवाँरा है बल्कि संस्कृति के नई संवाहक के रूप में उसको नई तरह की अभिव्यक्ति भी दी है।

बिहार का प्रसिद्ध चित्रकला शैली मधुबनी पेंटिग

बिहार का प्रसिद्ध चित्रकला शैली मधुबनी पेंटिग को भी महिलाओं  ने न केवल संजो कर रखा है, विश्व के पटल पर चित्रकला के बेमिसाल शैली के रूप में भी स्थापित किया है। मधुबनी पेंटिग जो परंपरागत शैली में भरनी-कचनी-तांत्रिक-गोदना और कोहबर के रूप में प्रसिद्ध है।

इस शैली में पौराणिक घटनाओं का वर्णन होता है और खाली जगहों पर फूल-पत्तों, कमल का फूल, शंख, चिड़िया, सांप या किसी जानवर आदी की कलाकृतियां होती हैं। कहीं-कहीं लोक-देवता, कुल-देवता की तस्वीरें भी बनाई जाती हैं। पहले यह केवल मिट्टी के दीवारों पर बनाई जाती थी, अब छोटे-बड़े हर कागज पर, चादर, साड़ी, पर्दे, कैलेंडर, कप-प्लेट अन्य कई जगहों पर बनाई जाती हैं।

क्या है पद्मश्री दुलारी देवी की कहानी?

मधुबनी पेंटिग की पुरखिन महिला कलाकारों ने परंपरागत शैली के साथ नई रचनात्मक प्रयोग भी करती रही हैं। बीते दिनों पद्म पुरस्कार से दुलारी देवी को सम्मानित किया गया। दुलारी देवी ने मधुबनी पेंटिग के परंपरागत शैली में आत्मकथ्य शैली को जोड़कर नया रचनात्मक आयाम दिया है। उनकी यह आत्मकथ्य शैली न केवल बेजोड़ है बेमिसाल भी है।

विकास के कई प्रतिमानों में नीचे से अव्वल रहने वाले राज्य से, बेहद कमजोर आर्थिक रूप से विपन्न परिवार से आने वाली दुलारी देवी, जिन्होंने मात्र 12 साल के उम्र में बाल विवाह का दंश झेला। सात साल के अंदर दुलारी देवी अपनी मायके मधुबनी जिले के रांटी गांव वापस चली आईं, वो भी छह महीने की बेटी की मौत के गम के साथ। मायके में दुलारी का संघर्ष शुरू हो गया।

आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए घर और बर्तन साफ करने का काम करना पड़ा

आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए घरों में घरऔर बर्तन साफ करने का काम करनी लगी। उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति में कुछ आय जोड़ने के लिए, मधुबनी शैली के पुरखिन महिलाओं से मधुबनी पेंटिग सीखने की इच्छा जाहिर की।

मधुबनी पेंटिग की मशहूर कलाकार कर्पूरी देवी के घर दुलारी झाडू-पोंछा करने जाया करती थीं। खाली समय में दुलारी अपने घर के आंगन में ही माटी पोतकर और लकड़ी का ब्रश बनाकर मधुबनी पेंटिग करने लगीं, जिसके लिए उनको अपनी मां से डांट भी मिलती कि घर-आंगन के जमीन पर लकीरें खींचने से दरिद्रता आती है।

कपूरी देवी के सहयोग से दुलारी ने मधुबनी पेंटिग की बारीक बातों को सीखा और अपनी कूची को सही दिशा देने का काम किया। धीरे-धीरे हाथ में झाडू-पोछें की जगह कूंची ने ले लिया। उनके हार्थों में कूची की रफ्तार और सफाई इस कदर रही कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी तारीफ की।

स्वयं को आर्थिक संबल देने के लिए कूचियों के सहारे तस्वीर में लाल-पीले-हरे रंग भरते-भरते वह स्वयं  राष्ट्रपति भवन के दहलीज़ तक आ पहुंची होगी, यह दुलारी देवी ने भी नहीं सोचा था। दुलारी को मधुबनी पेंटिग की कूंची पकड़वाने वाली कपूरी देवी दो साल पहले चल बसी। दुलारी देवी के स्मृतियों में वह फिर से सम्मान भाव से जीवित हो गई है, आभार के साथ।

गीता वुल्फ ने अपनी किताब, ‘फांलोइंग माई पेंट ब्रश’ और मार्टिन लि कांज की फ्रेंच में लिखी किताब में दुलारी देवी की जीवन संघर्ष और कलाकॄतियों को जगह मिली। दुलारी बिहार के मधुबनी जिले के गांव रांटी से विश्व मंच के पाठकों और कला के कद्रदानों के समीप पहुंच गई।

दूरस्थ शिक्षा के प्रमुख संस्थान इग्नू ने जब दुलारी के पेंटिग को अपने पाठ्य पुस्तिकाओं के कवर के लिए चुना, दुलारी भारत में भी घरों में पहुंच गई। पटना के बिहार संग्रालय में दुलारी देवी की पेंटीग को न केवल जगह मिली उनको राज्य पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

पद्मश्री दुलारी देवी ने अपने जीवन के संघर्ष और तकलीफों को आत्मकथ्य के रूप में अभिव्यक्त किया

दुलारी देवी मधुबनी पेंटिग की परंपरागत शैली जो पहले से ही काफी मशहूर है, वह तो करती ही हैं, उन्होंने अपने जीवन के संघर्ष और तकलीफों को आत्मकथ्य के रूप में अभिव्यक्त किया है, जो मधुबनी पेंटिंग के साथ एक नया रचनात्मक प्रयोग है। इस तरह के प्रयोग मधुबनी पेंटिग के पुरखिन महिला कलाकारों ने देश में कम पर विदेशों में जाकर अधिक किए हैं।

धीरे-धीरे इस तरह के नए प्रयोग नये युवा कलाकारों में भी देखने को मिल रहे हैं, इसलिए दुलारी देवी की मधुबनी पेंटिग करने की कला विशिष्ट हो जाती है। वह न परंपरा के दायरे में रहकर भी और परंपरागत दायरे में मुक्त होने का प्रयास करना चाहती है।

दुलारी देवी मधुबनी पेंटिग में कूचियों से रंग भरते हुए स्वयं क्या रच रची हैं, इसका मूल्य बोध भले उनको न हो, पर वह महिलाओं के दमित भावों को नया आयाम दे रही हैं, जो बिहार के उन गीतों में कई बार अभिव्यक्त होते जो संस्कार-कर्म में महिलाओं के स्वायत दायरे के बीच गाए जाते हैं।

हाशिये से सफलता के मुकाम तक पहुंचने वाली दुलारी देवी, देश के कई महिलाओं के लिए मिसाल है, जो जीवय यात्रा में संघर्ष के सामने घुटने टेक देती हैं और अपने साथ होने वाली हर भेदभाव को अपना नसीब मान लेती हैं। उनकी बनाई हुई 8000 के आसपास पेंटिग्स यह बता देता हैं कि संघर्ष कितना कठोर और मुश्किल भरा क्यों न हो, मंजिल तक जरूर पहुंचता है।

इमेज सोर्स: Indian Times 

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