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जब अपनों ने मेरा साथ न दिया तो मैंने दिवाली पर एक बड़ा कदम उठाया…

"मेरी तबियत ठीक नहीं चल रही, फिर भी में काम करती हूँ। क्या मेरे प्रति तुम लोगों को कोई सवेंदना नहीं रही? और तुम खुद को मेरा परिवार कहते हो?"

“मेरी तबियत ठीक नहीं चल रही, फिर भी में काम करती हूँ। क्या मेरे प्रति तुम लोगों को कोई सवेंदना नहीं रही? और तुम खुद को मेरा परिवार कहते हो?”

नेहा का स्वास्थ गए साल से ठीक नहीं चल रहा था। उसको रोजमरा के काम भी ठीक से हो नहीं पा रहे थे। आखिर मन को मारते-मारते उसका शरीर भी मरने लग गया था। लेकिन उसके परिवार पर कुछ असर न हुआ।

उसे आराम करना उसे सिखाया न गया था तो अपने आराम में दूसरा कौन खलल डालता? उसका पति था तो पुरुष ही! उसे कहाँ समझ पाता? वह कुछ कहना चाहती तो उसकी बीमारी के खर्चे का हवाला दे कर उसे चुप करा देता।

गए साल की दिवाली भी ऐसी ही रूखी रूखी गयी। उसके स्वास्थ के कारन वो ज्यादा कुछ नहीं कर नहीं पायी और न ही घर के और किसी ने उत्साह दिखाया। कहीं न कहीं यह बात भी नेहा को खल रही थी। लेकिन रोज़ो-रोज़ की इस घिट-पिट ने आज नेहा को एक बड़ा कदम उठाने पर मजबूर कर दिया था।

“क्या घर मेरे अकेले का है? अगर मैं न कर सकूँ तो क्या किसी और ने आगे बढ़ के जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए?” ऐसे और अगणित प्रश्नोंने उसके दिमाग को झंझोड़ दिया था। और अब तो दीवाली भी सर पर थी।

बहुंताश घरों में औरतों का ही यह काम माना जाता है। घर की साफ़ सफाई से लेकर त्योहारों की तैयारी, मेहमानों की आवभगत। इसमें से जरा किसी में भी अगर आप कम पड़ गए तो फिर आपको नाकारा कहने को पूरी दुनिया खड़ी रहती है।

“इसे तो कुछ नहीं आता!”

“तुम्हारी माँ ने नहीं सिखाया क्या?”

ऐसे अनगनित तानों से कान और मन दोनों को आहत कर दिया जाता है। हम औरतों की परवरिश ही ऐसे की जाती है कि हम त्याग की मूर्ति हैं। हम हमारे बारे मैं नहीं सोच सकते, हमारी ख़ुशी दूसरों को, खुश करने में ही है। सुपरवुमेन की यह छवी सँभालते सँभालते हम अपने आप को कही खो देती हैं। शायद उसकी बीमारी का भी यही कारण था। मन मारते मारते शरीर मरने लगा।

नेहा ने तय कर लिया कि आज इस मुद्दे पे वो घर मैं बात करेगी।

रात को जब निखिल, उसकी १६ साल की  बेटी दिया और उसका १३ साल का बेटा स्मित खाना खा रहे थे तब नेहा ने घोषणा की कि उसे सबसे कुछ बात करनी है।

खाने के बाद नेहा ने सबसे पुछा, “दिवाली आ रही है, तो उसकी तैयारी कैसे करेंगे?”

इस बात पर तीनों हँस कर कहा, “इसमें हम क्या करें? यह डिपार्टमेंट तो आपका है। आप देख लो।”

इस बात पे नेहा ने अपना संयम बनाते हुए सवाल किया, “क्या यह घर सिर्फ मेरे अकेले का है? अगर इस घर में चार सदस्य रहते हैं तो क्या हम सबका यह कर्तव्य नहीं कि हम सांझेदारी से अपना काम करें? मेरी तबियत गए साल से ठीक नहीं चल रही, फिर भी में काम करती हूँ। क्या मेरे प्रति आप लोगों को कोई सवेंदना नहीं रही? अगर मैं कोई काम करने मैं असमर्थ हूँ तो क्या आप तीनों  का कर्तव्य नहीं कि उसका हल निकालें?

अगर कल मैं न रही तो क्या इस घर मैं कोई त्यौहार नहीं होगा? आत्मनिर्भर बनाना कोई गलत बात नहीं होती और घर के काम करने में न ही कोई शर्म।”

तीनों बगलें झाँक रहे थे। बिना उनके ज़्यादा कुछ कहे, नेहा ने तीनों के साथ दिवाली के ज्यादा कामों का नियोजन किया जिसे करके वो चारों भी अपनी दिवाली की छुट्टी एकसाथ और अपने परिजनों के साथ मना सकें।

दिवाली की साफ़ सफाई जो नेहा हमेशा अकेले किया करती थी उसे उसने चारों में बाँट लिया।  दिया और स्मित का कमरे की साफ़ सफाई का काम उन दोनों पे सौंपा। निखिल के साथ नेहा ने खुद के कमरे और हॉल की सफाई कर ली।

किचन की सफाई के लिए उसने डॉमेस्टिक हेल्प ली और अपनी निगरानी मैं उसने पूरा काम करवा लिया। काम की चीज़े, रिसायकल कर सके ऐसी वस्तु, किसी को दान दे सके ऐसी किताबें, कपड़े इस तरह विभाजन करके नेहा ने बच्चों को शेयरिंग इस केयरिंग का एक उदाहरण दिया।

दिवाली पे नेहा खुद अपने हाथ से दिवाली के व्यंजन बनाती थी पर इस बार उसने अपने दोस्त जो घर से ही अपना इन व्यंजनों का व्यापार करती थी इसे ऑर्डर दिया।

इस तरह से नेहा ने उसके व्यापर को मदद भी की और उसे घर के स्वाद के व्यंजन भी मिले। सबकी मदद से नेहा ने लड्डू घर में ही बनाये, इस तरह सबको घर की मिठाई का भी आनंद मिला।

निखिल के साथ घर की सजावट का काम निपटा लिया। हॉल मैं ही एक डायनिंग टेबल पे व्यंजनों के डब्बे पे नाम लिखके रखे जिससे वो वक़्त पे जो चाहे वो खा सके। इससे फ्रिज और किचन मैं होने वाले अतिरिक्त चीज़ो का फैलाव न हो।

छुट्टी में मेहमानों को मिलने तथा आने का टाइमटेबल भी सेट किया, जिससे छुट्टी के आखिर के कुछ दिन तो सब अपने लिए रखें। इस तरह से नियोजन करके अपनी दिवाली के काम और छुट्टी को चारों ने मिलके नियोजन किया और आने वाले त्यौहार को एक साथ में मनाया।

इस तरह नेहा की सेहत भी संभाली रही और त्यौहार भी अच्छे से हुआ!

भले नेहा इस कहानी का प्रतिनिधक किरदार है पर यह कहानी हर घर की है। आज भी इकट्ठे घर संस्कृति में यह मनमुटाव चलता ही रहता है। और अगर घर की औरत बीमार हो तो…

ये तो थी दिवाली की बात! लेकिन घर के काम और जिम्मेदारी घर के हर सदस्य की है। अगर हम बदलाव चाहते है तो कोई और इसे आपके लिए नहीं बदलेगा। शुरुआत आपको अपने से ही करनी पड़ेगी।

सामने वाला अगर अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ पा रहा तो उसे आपको समझाना पड़ेगा। बातों से, समझदारी से नेहा ने जिस तरह अपने घर के इस समस्या का समाधान निकाला, उसी तरह हमें भी कदम उठाना है। बदलाव चाहिए तो खुद बदलना है। कहते हैं न कि कौन कहता है आसमां मैं सुराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों। और अगर सामने वाला नहीं समझे तो… वो आपके काबिल नहीं!

इमेज सोर्स: Still from Bollywood Movie English Vinglish, YouTube 

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