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अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो, हिंसा का रोज़नामचा क्यों लगता है?

कुर्रतुल ऐन हैदर साठ के दशक में जब हिंदुस्तान पहुंचीं तो पहला बेशमीमती अफसाना जो उन्होंने लिखा, वह था अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो...

कुर्रतुल ऐन हैदर साठ के दशक में जब हिंदुस्तान पहुंचीं तो पहला बेशमीमती अफसाना जो उन्होंने लिखा, वह था अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो…

कुर्रतुल ऐन हैदर साठ के दशक में जब अपने ख़्वाबों के मूल्क हिंदुस्तान पहुंचीं तो पहला बेशमीमती अफसाना जो उन्होंने लिखा, वह था अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो

यह एक मामूली नाचने-गाने वाली दो बहनों की कहानी थी जो मर्दों के छलावों की बार-बार शिकार होती है। अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो एक प्रतीक की तरह अफसाने का शीषर्क बन गया, जो पढ़ने मात्र से महिलाओं के जन्म से लेकर उसके फना हो जाने तक की पीड़ा को एक वाक्य में बयां कर देता था।

अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो: एक प्रतीक

2006 में जब उमराव जान, एक नाचने-गाने वाली तवायफ पर दोबारा कहानी कहने की कोशिश की गई,  इससे पहले मिर्ज़ा हादी रुसवा की कहानी को निर्माता-निर्देशक मुजफ्फर अली मशहूर अदाकारा रेखा के साथ कह चुके थे। उमराव जान फिल्म में लेखक-शायर जावेद अख्तर ने अगले जन्म मोहे बिटिया कीजो को एक संगीत में पिरोने का काम किया

जावेद साहब भी अपने गीत के बोल में  कुर्रतुल ऐन हैदर के उपन्यास में मौजूद महिलाओं को उस पीड़ा से मुक्त नहीं कर सके, जो मर्दवादी समाज में उसके पैदा होने के पहले से शुरू हो जाती है और मौत तक चलती रहती है, जिसको तमाम समाजशास्त्री और सोचने-समझने वाले लोग हिंसा के रूप में पहचानते हैं और महिलाओं के खिलाफ किया जाने वाला सबसे बड़ा भेदभाव मानते हैं।

महिलाओं के साथ हिंसा एक वैश्विक परिघटना है, पूरे दुनिया में शायद ही कोई मुल्क इस बात का दावा कर सकता है कि उसके समाज में महिलाओं के साथ किसी भी तरह की हिंसा वजूद में नहीं है या उसने लोकतांत्रिक प्रयासों ने महिलाओं के विरुद्ध हिंसा का जड़-मूल से नाश कर दिया है। भारतीय संदर्भ में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिणति के साथ-साथ धार्मिक और जातीय जकड़बंदी भी शामिल हैं।

मानवाधिकार के नज़रिये से महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को सूत्रबद्ध किया जाए तो वह कुर्रतुल ऐन हैदर के अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो  वाक्य पर सटीक बैठ जाती है क्योंकि हिंसा किसी भी महिला का एक पूरा जीवनक्रम ही है, वह चाहे आर्थिक संपन्नता के मुहाने पर हो या आर्थिक विपन्नता के। समाज में चाहे वह बहुत अधिक प्रतिष्ठित हो या अपने अस्तित्व के सम्मान के लिए संघर्षरत हो, वह स्वयं यह दावा नहीं कर सकती है वह किसी न किसी रूप में हिंसा से दो-चार नहीं हुई हो।

अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो: बचपन से वृद्धावस्था तक चलता हिंसा का दायरा

जन्म के पूर्व से उसके साथ जो हिंसा सिर्फ उसके लैंगिक पहचान के साथ शुरू होती है उसके मृत्यु तक चलती ही रहती है।  मसलन,

जन्मपूर्व हिंसा

लिंग चुनाव के लिए हत्या, लिंग जांच हो जाने पर गर्भावस्था के दौरान औरत पर अत्याचार क्योंकि वह बालिका को जन्म देने वाली है।

शैशव हिंसा

बालिका शिशु के जन्म लेते ही उसकी हत्या। इसके साथ ही उसे जन्म देने वाली औरत को दिए जाने वाले शारीरिक, यौन और मानसिक उत्पीड़न।

बालिका उत्पीड़न

बाल-विवाह, महिलाओं का खतना, शारीरिक यौन शोषण और मानसिक उत्पीड़न, दुराचारपूर्ण व्यवहार, बाल वेश्यावृत्ति और अश्लील सामग्री तैयार करने लिए उनका इस्तेमाल।

किशोरावस्था और प्रौढ़ावस्था में हिंसा

डेंटिग और सामंती हिंसा (एसिड फेंकना, डेंट के दौरान बलात्कार करना), गरीबी के कारण मजबूर करके अत्याचार करना, कर्मस्थल पर यौनशोषण, बलात्कार, यौन उत्पीड़न, जबरदस्ती करवाई गई, वेश्यावृत्ति, अश्लील सामग्री के लिए दुरुपयोग और हत्याएं, मानसिक उत्पीड़न, विकलांग महिलाओं का यौन शोषण, बलात करवाया गया गर्भधारण।

वृद्ध महिलाओं के साथ हिंसा

आत्महत्या करने के लिए विवश कर देना या आर्थिक कारणों से की गई हत्या, यौन, शारीरिक और संवेदना के स्तर पर मानसिक उत्पीड़न।

बचपन से वृद्धावस्था तक वह किसी न किसी हिंसा के दायरे में होती ही है। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और कभी-कभी राजनीतिक कारण भी पितृसता के साथ मिलकर लैंगिक हिंसा को जटिल बना देते है, जो अलग-अलग तरीके से महिलाओं के साथ व्यवहार करती है।

महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के मामले एक अभेद दीवार से क्यों लगते हैं?

यह तब और अधिक विस्तार पाती है जब वह किसी समुदाय विशेष की मिल्कियत हो जाती है क्योंकि तब वह समुदाय की इज्जत, सतीत्व और शुचिता जैसे बड़े-बड़े शब्दों के साथ नथ्थी कर दी जाती है। इसके बाद किसी समुदाय पर वर्चस्व स्थापित करने का साध्य बन जाती है और हमले का पहला शिकार होती है।

मौजूदा समय में महिलाओं के साथ हिंसा, चाहे वह किसी भी रूप में है, यह समझना जरूरी है कि वह हर रोज घर या घर के बाहर के दायरे में हो जरूर रही है। परंतु, वह न तो कभी दर्ज होकर सतह पर आ पाती है न ही अपने प्रतिरोध की मजबूत जमीन तैयार कर पाती है। वह बस महिलाओं के आंखों का एक पोर गीला कर देती है और मन ही मन एक वाक्य दोहराती है अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो। यही कारण है कि महिलाओं के साथ घटित होने वाले तमाम हिंसा के मामले अभेद दीवार से लगते हैं।

आवाज़ साझा करनी ज़रूरी है, ‘अब बस’ कहना ज़रूरी!

इस यथास्थिति में सबसे अधिक जरूरी यह है कि महिलाएं अपने साथ होने वाले तमाम भेदभाव, चाहे वह घर के दायरे में हो या घर के बाहर के दायरे में, वह इसको एक-दूसरे से साझा करें और इससे अभेद दीवार को तोड़ने के लिए एक-दूसरे के साथ खड़ी हों।

एक-दूसरे के साथ अपनी साझा समस्या का विस्तार और अगली पीढ़ी में इसके बारे में समझदारी, हिंसा के साथ उनके जटिल संबंधों को फिर से पुर्नपरिभाषित करने के साथ-साथ उससे निपटने के रास्ते अवश्य खोजेगा।

शायद तभी अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो, अगले जन्म मुझे बिटिया ही कीजो में बदल सकेगा।

इमेज सोर्स: Still from short film Husband ill-Treats His Wife, See How She Takes A Stand/Rohit R Gaba via YouTube

 

 

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