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मम्मी, आपकी चिट्ठी आयी है…

और वो मटमैले रंग वाला पोस्टकार्ड। कुछ मन की बात लिखते नहीं बनता था। मैं तो डाकिए की नियत पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती, "आपने पढ़ा तो नहीं न?"

और वो मटमैले रंग वाला पोस्टकार्ड। कुछ मन की बात लिखते नहीं बनता था। मैं तो डाकिए की नियत पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती, “आपने पढ़ा तो नहीं न?”

“मम्मी, मैंने एक लेटर रखा है तुम्हारे लैपटॉप पर!”

मैं फटाफट देखने गयी कि क्या लिखा है। एक लाइन थी उस खत में – “मम्मी, तुम मुझे पेपर वाला एक फाइटर प्लेन ला देना। तुम बहुत अच्छी हो। तुम्हारा अच्छा बेटा!”

अभी हालिया उसे चिठ्ठी के बारे में बताया था कि कैसे हम अपने मन की बात, इच्छाएं लिख कर किसी को बताते हैं। उदाहरण और सीख दोनों ही मिल गईं।

चिठ्ठियां तो बीते जमाने की बात लगती हैं। कुछ घटनाएं, आदतें और वस्तु धरोहर होती हैं, बचा कर आने वाले पीढ़ी को दिखाने/पढ़ाने और सिखाने के लिए।

अभी कुछ रोज़ पहले एक प्यारी सी लड़की ने मेरा पता पूछा। मेरी उत्सुकता को उसने खुशी से भर दिया था, “दीदी, चिठ्ठी भेजनी है!”

चिठ्ठी सुनते ही वो‌ मेरे कंठ का हार हो गई। जिसने बचपन से पत्राचार पसंद हो वो बाग-बाग क्यों न हो। कितनी स्याही बहाई है मैंने पन्नों पर। कितने लिफ़ाफे, पन्नें, और मुबारकबाद वाले कार्ड्स लिखे थे, बनाए और उसमें रंग भरे थे मैंने।

याद है अन्तर्देशीय पत्र कार्ड? वही नीले रंग वाला। ममेरे-फूफेरे-मौसेरे बहन-भाई और सभी बड़ों को तब क्या चाव से चिठ्ठी लिखते थे।

आदरणीय फलाना, सादर प्रणाम से शुरू हुई बात हाल-चाल से होते हुए, नया-पुराना, घर-द्वार, के गलियारे से आपकी आज्ञाकारी/प्यारी/दुलारी मैं, पर खत्म होती थी।

मतलब एक पैटर्न होता था। फिर स्टैम्प, मोहर और ये गया लिफ़ाफा लाल पोस्ट-बाक्स में। मेरा अधीर मन फिर मुंह ताकता डाकिए का। साईकिल की ट्रिंग-ट्रिंग और मैं फ़ुर्र से बाहर। आस लगी रहती आज तो आएगा ही। लेट जो हो तो मां का मन चाट खाती, “मिला नहीं क्या?”, “लिखा नहीं जवाब? क्यों?”, “मुझे पता है वो मुझे नहीं मानती!” मां सिर पीट लेती।

और वो मटमैले रंग वाला पोस्टकार्ड। बिल्कुल खुला सा। कुछ मन की बात लिखते नहीं बनता था। मैं तो डाकिए की नियत पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती, “आपने पढ़ा तो नहीं न?” और वो मुस्कुरा पोस्टकार्ड थमा चल देते। आज सोचती हूं, जो मैं प्रत्रवाहक होती, चोर मेरा मन सरसरी नज़रो को दौड़ा ही देता। खैर, उसकी उपयोगिता औपचारिक बातों तक ही सिमीत होती होगी, शायद। मैंने उस पर भी बहुत लिपाई-पुताई की है।

फिर जब बाहर निकली, घर की दहलीज़ पार कर तो चिठ्ठी-पत्री कहीं छूटने लगी। परन्तु स्याही ढीठ थी मेरी, फैलने से रोक ही नहीं पाती थी खुद को। तो मैं मम्मी-पापा को चिठ्ठी लिख तकिए के नीचे रख कर आने लगी।

कई यादों में यह एक ख़ास है, मन से लगी हुई –

तो एक छुट्टी के दौरान मां-पापा में किसी बात को लेकर अनबन हो गई थी। चुप्पी की चादर फैली थी। तब कहां दाम्पत्य जीवन के आयामों से अवगत थी मैं? बस हम साथ-साथ हैं वाली  इमेज़ मन में पटी थी। तो जाते वक्त मैंने एक पेपर लिया और मन की सारी बात लिखकर तकिए तले रखकर चली गई।

पहुंच कर जब फोन पर बात हुई, दोनों ने बातें की और मुझे आवाज़ से लगा दोनों के गले भर आए हैं। उन्होंने काफ़ी दिनों तक सहेज कर रखा था वो कागज़ का टुकड़ा।

तब मैं जो कोई बात कह न पाती, समझा नहीं जाती, लिख कर पहुँचाती। मेरी पाती ने अपने भाई-बहन के गद्दे के नीचे भी खूब जगह जमाई है। और फिर मोबाइल फ़ोन इज़ाद हुआ। और फिर मेसेजिंग और वाट्सअप, चिठ्ठियां तो समाप्त ही हो गईं।

भला हो ऐसे चंद लोगों का जिन्होंने चिठ्ठी को एक नए लिहाफ़ में पेश किया। उनमें से कुछ लोग सोशल मीडिया पर मिलेंगे आपको। बड़े अदबी और टैलेंटेड स्त्री-पुरुष की एक टोली जैसी। लिखकर मन की बात मन तक पहुंचाते हैं। मैंने भी लिखी है अपने मन की बात। कईओं को लिखी हैं। अजनबियों को लिखी हैं। मन को सूकून मिले इसलिए लिखी हैं।

और एक बार फिर सुकून पाया मैंने चिठ्ठियों में!

और दबे अरमानों को हवा लग गई। आजकल पाती की चाहत फिर से सुलगने लगी है। ख़त मिलने लगे हैं। और जो कोई पूछ ले, “बोलो क्या चाहिए?” मैं भी मुस्कुरा कर, संभावनाएं समेटे कुछ-एक शब्दों में ख्वाहिशों का पिटारा मांग लेती हूं, “एक चिट्ठी, बस!”

मूल चित्र : Still from India Post Online, Short Film

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Shilpee Prasad

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