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फिल्मों में महिलाओं का चित्रण: क्या पिक्चर हमेशा बाकी रहेगी?

फिल्मों में महिलाओं का चित्रण बदला तो है, पर वह केवल एक खांचे से निकलकर दूसरे में फंस जाती है और एक बुरी औरत बन जाती है। क्या कहती हैं ये फिल्में?

सिनेमाई पर्दे पर फिल्मों में महिलाओं का चित्रण बदला तो आया, पर केवल वह एक खांचे से निकलकर दूसरे में फंस जाती है और वह या तो एक बुरी औरत बन जाती है या विक्टिम के रूप में नज़र आती है या विलेन के रूप में।

कहते हैं कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है। समाज में जो हो रहा है यह उसे बड़े पर्दे पर दिखाता है। पर आजादी के इतने सालों बाद भी यह नहीं कहा जा सकता है कि महिलाओं की स्थिति पुरुषों के मुकाबले सही है।

भले ही बीते समयों से स्थिति में थोड़ी तब्दीली आई हो लेकिन, औरतों की स्थिति हमेशा दोयम रही। फिल्मों में भी फिर हमें औरत की वैसी ही दोयम दर्जे की स्थिति देखने को मिलती हैं।

महिलाओं का फिल्मों में आना और फिल्मों में महिलाओं का चित्रण (filmon mein mahila chitran)

शुरुआत से अगर हम फिल्मों में महिलाओं के चित्रण को देखे तो भारत की सबसे पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र में जो लीड महिला का रोल है वह एक पुरुष के द्वारा निभाया गया।

पर समय बीता और चालीस के दशक में शुरू हुए भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के सांस्कृतिक आंदोलन की वजह से सिनेमा और महिलाओं के इस विधा में प्रवेश के विषय में आम पढ़े-लिखे लोगों की धारणा थोड़ी बदली। वर्ना इसके पहले तक महिलाओं का फिल्मों में आना अच्छा नहीं माना जाता था।

पारंपरिक एवं घरेलू स्टीरियोटाइप में फंसी औरतें( filmon mein mahilaon ka role)

पर जब महिलाएं पर्दे पर दिखने लगी तो एक स्टीरियोटाइप में फंसी रह गई। हम मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा की बात करें तो शुरुआती दौर में महिलाओं को बहुत ही पारंपरिक एवं घरेलू रूप में प्रस्तुत किया गया। ‘श्री चार सौ बीस’ का यह गीत भी सिर्फ एक किरदार का परिचय नहीं बल्कि पूरे मुल्क की कहानी बयान करता है।

“छोटे-से घर में ग़रीब का बेटा

मैं भी हूँ माँ के नसीब का बेटा

रंज-ओ-ग़म बचपन के साथी

आंसुओं में जली जीवन बाती।”


जैसे समाज ने औरतों को पारंपरिक और घरेलू बनाकर घर की चार दीवारी में कैद करके रखा था। वैसे ही अनेकानेक फिल्मों ने स्त्री के पारंपरिक और घरेलू छवि वाला चित्रण पर्दे पर दिखाया। इसके विपरित अगर किसी तरह की आधुनिक औरत दिखती तो वो बुरी औरत होती।

अच्छी और बुरी औरतों के खांचे में फंसी औरत

राज कूपर की फिल्म ‘श्री 420’ का ही फिर उदाहरण लेते हैं। उसमें हम दो औरतों को देखते हैं मुख्य भूमिका में। नरगिस को ‘विद्या’ के रोल में और नादिरा को ‘माया’ के में।

जहां विद्या ग़रीबी के माहौल के बीच सीधी-साधी घरेलू और पारंपरिक साड़ी पहनने वाली औरत के रूप में दिखती हैं। वहीं ‘माया’ जो एक स़ंभ्रात लोगों के बीच रहती है। जो पुरुषों के बराबर रहना चाहती है। खुलकर अपना जीवन व्यतीत करती है। अपनी मर्जी के मॉडर्न कपड़े पहनती है। सिगरेट पीती है।

उसे बुरी औरत के रूप में दिखाया जाता है। बताया जाता है कि बुरी औरत ऐसी होती है। और अच्छी औरत विद्या की तरह। दो खांचे बना दिए गए औरतों के लिए की आपको इस तरह होना है इस तरह नहीं। आप पुरुष के बराबर रहकर उनके बीच नहीं रह सकती।

वहीं गुरु दत्त की फिल्म ‘प्यासा’ में हम अलग तरह से अच्छी और बुरी औरतों को देखते हैं। एक तरफ वैश्या ‘गुलाबों’ के किरदार में वाहिदा रहमान को देखते हैं, जो विजय याने गुरु से फिल्म में प्यार करती है।

वही़ माला सिन्हा को ‘मीना’ के किरदार में। जहां मीना ने विजय को इसीलिए छोड़ दिया था क्योंकि विजय बेरोजगार था। उसे अच्छी जिंदगी नहीं दे सकता था। तो मीना ने खुद की जिंदगी के बारे में सोचा।

यहां इस फिल्म में गुलाबों का जो किरदार है समाज की नजर में बुरा है क्योंकि वह एक वैश्या है। वहीं मीना ऑडियंस की नजर में बुरी औरत है क्योंकि उसने विजय के प्यार के बदले खुद की अच्छी जिंदगी चुनी। औरत किसी न किसी तरह से बुरी ही है

फिल्मों में साज सज्जा के लिए औरत

बाकी उस दौर से या आज के दौर की फिल्मों को देखें तो कई फिल्मों महिला अभिनेताओं का किरदार है काफी कमजोर सा ही रहता था। केवल नाच गाने के लिए, हीरो की एक जरूरत के तौर पर। हीरो ताकतवर दिखाने के लिए वो उसे गुंडों से बचाता है।

इन्हीं काम के लिए बस एक शो पीस के तौर पर महिला अभिनेताओं का किरदार हुआ करता था। आज भी कई कमर्शियल फिल्मों में वैसा ही होता है। जैसे शोले में बसंती का किरदार, हाउसफुल फ्रैंचाइजी की सभी फिल्में जहां औरतें केवल नाम मात्र की है। फिल्म में कोई साज सज्जा की चीज की तरह।

जिसमें बॉलीवुड आइटम नंबर की एक श्रृंखला को ले सकते हैं। बॉलीवुड की फिल्मों में यह अक्सर औरतों को मेल गेज (याने पुरुषों की नजर से देखना) से ही देखने का तरीका हैं। जिसमें आईटम नंबर को मनोरंजन के पर चलाया जाता है। पर उसमें औरतों को केवल एक भोग की वस्तु के रूप में ही दिखाया जाता है।

आप इसमें अब तक की सबसे सेक्सिस्ट गीत की लाईनों को पढ़ें –

“मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार

गटका ले सईंया अल्कोहोल से”


ऐसे चित्रण में हम तीन तरह से पुरुषों की नज़र से औरतों का भोग की वस्तु बनते हुए देखते हैं। पहला उस सीन में लाइनों, डायलॉग, और सेटिंग से एक सजावट या भोग की चीज के रूप में औरतों को देखते हैं। दूसरा उस कैमरे के द्वारा महिलाओं को वस्तु बनता पाते हैं। तीसरा वो थिएटर में बैठी ऑडियंस जो सीटी बजा रही है।

बेवकूफ और नासमझ औरत वाली छवि

फिल्मों में औरतों को बेवकूफ और नासमझ की तरह कई बार चित्रित किया गया। जिसमें सबसे बड़ा उदाहरण है, फिल्मकार डेविड धवन की कुली नंबर-1 जैसी फिल्म जिसमें करिश्मा कपूर को किरदार बिल्कुल नासमझ दिखाया गया है। उसे अपने पति के झूठ समझ ही नहीं आते। या हाउसफुल फ्रैंचाइजी की किसी फिल्म को ले ले। जुड़वां नंबर 1 आदि अनेक फिल्मों की एक लंबी लिस्ट है।

फिल्मों में महिलाओं का चित्रण : मजबूत औरतों के किरदार

हमेशा पुरुषों वाली फिल्म में महिलाओं के भी काफी दमदार अभिनय वाली फिल्में बनी। जिसमें वे खुद का निर्णय ले सकती थी। मदर इंडिया में नरगिस का किरदार हो, या मुगल-ए-आज़म में मधुबाला, खून भरी मांग जैसी फिल्म में रेखा हो, या फिल्म दामिनी में मीनाक्षी शेषाद्रि का दमदार रोल है।

मर्दानी में रानी मुखर्जी का रोल की वजह से ये ऐसी फिल्में हैं जिसमें बेहतरीन पुरुष अभिनेताओं के होते हुए भी अपनी अलग छाप छोड़ती हैं। ये मानो पुरुष-सत्तात्मक समाज जो फिल्में बनी हैं उसे तोड़ती है।

पुरुषसत्ता को आईना दिखाती औरतें

भारतीय सिनेमा ‘श्याम बेनेगल’ जैसे फिल्मकार भी आए जिन्होंने फिल्मों में औरतों का ऐसा चित्रण किया जो पुरुषसत्ता को आईना दिखाती। जिसमें अंकुर, मंडी, भूमिका, सूरज का सातवां घोड़ा जैसी महिला केंद्रित फिल्म शामिल हैं, जिसमें स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी जैसी अभिनेत्रियों द्वारा मजबूत और सशक्त महिलाओं का फिल्मों में चित्रण होता है।

मंडी जैसी फिल्म में हम वैश्याओं के किरदार को नए रूप में देखते हैं। ये पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देती नज़र आती है। जब उस फिल्म में शबाना आजमी के द्वारा निभाया किरदार रुक्मिणी बाई पर्दे पर कहती हैं कि ‘औरत अपनी मर्जी से नहीं बिकती। मर्द जब उसे खरीदता है तभी तो वह अपना जिस्म बेचती है।

सूरज का सातवां घोड़ा में ‘पल्लवी जोशी’ का लिलि का क़िरदार है। जो चुपचाप बर्दाश्त करने वाली औरत नहीं बल्कि सशक्त औरत दिखती है।

फिल्म भूमिका को हम स्मिता पाटिल के द्वारा निभाया ‘उषा’ का किरदार को देखते हैं। जो स्वतंत्र है, स्वावलंबी है, आर्थिक रूप से मजबूत है। वह उन पुरुषों को त्याग करती जाती है जो उसे बांधने की कोशिश करते हैं। वह इससे बेहतर स्वतंत्र जीवन अपनी मर्जी से जीवन व्यतीत करना चाहती है।

विक्टिमहुड के चक्कर में फंसी महिला केंद्रित फिल्में

आज के समकालीन दौर की फिल्में जैसे पिंक, कहानी, चक दे इंडिया, द डर्टी पिक्चर, दंगल, जो महिलाओं को केंद्र में रखकर फिल्म बनाई जा रही है। पर उन फिल्मों में क्या दिखाया जा रहा है?

फिल्म कहानी की बेहद शानदार पटकथा है, जिसमें विद्या बालन की शानदार अभिनय भी है। पर अंत में वही विद्या बालन का किरदार विलेन में परिवर्तित हो जाता है। तो हमारी नजर में औरत फिर बुरी बन जाती है।

द डर्टी पिक्चर में इतने शोषण के बाद सिल्क स्मिता जब मर जाती है तो हमारी सहानुभूति सिल्क के किरदार को एक विक्टिम हुड में बदल देती है।

वहीं पिंक जैसी फिल्म भले ही लैंगिक मुद्दों को लेकर बने, तापसी पन्नू जैसी बेहतरीन अदाकारा हो। पर एक पुरुष मसीहा बनकर आता है। जब औरत न कहती है तो पुरुष नहीं समझते, समाज नहीं समझता। पर जैसे ही अमिताभ बच्चन का किरदार जब यह कहता है कि जब एक औरत न कहती हैं इसका तो उसका मतलब न ही होता है। वह अपने आप में पूरा वाक्य है। तब तक हम औरत की न के बारे में नहीं समझते। एक पुरुष को यह कहने के लिए आना पड़ता है।

फिल्मों में महिलाओं का चित्रण: मैनिक पिक्सी ड्रीम गर्ल

‘मैनिक पिक्सी ड्रील गर्ल’ के रूप में चित्रण याने वैसी औरतें जिनका काम ही केवल और केवल पुरुषों की जिंदगी को संवारना है बदलना है।

उदाहरण के लिए फिल्म तमाशा में दीपिका पादुकोण का किरदार है जो रणबीर कपूर की बोरिंग, उदास जिंदगी से उसे निकालती है। जहां पहले औरत इतनी कमजोर थी कि उसे पुरुष बचाने के लिए आते थे। अब उनका काम पुरुषों की जिंदगी को केवल संवरना बन गया।

स्टीरियोटाइप को ब्रेक करती औरत

हाल ही में 2020 में शकुंतला देवी फिल्म आई। उसने माँ के स्टीरियोटाइप को तोड़ा। जहां माँ अपने बच्चे के लिए अपने जॉब अपना करियर छोड़ देती थी। वहीं इसमें माँ के अंदर जो औरत है जिसके अपने सपने हैं करियर है उसे नहीं छोड़ती, जो शशि कपूर और अमिताभ बच्चन की माँ के किरदार से अलग एक किरदार को निभाती है। माँ के स्टीरियोटाइप को तोड़ती है।

सिनेमाई पर्दे पर औरत के चित्रण में बदलाव तो आया है। पर केवल वह एक खांचे से निकलकर दूसरे में फंस जाती है और वह या तो एक बुरी औरत बन जाती है या विक्टिम के रूप में नज़र आती है या विलेन के रूप में।

अभी समाज और फिल्मों में औरतों की स्थिति में सुधार लाने की आवश्यकता है। अभी और लंबा रास्ता हमें तय करना है और जैसे ही समाज में बदलाव आएगा वह सिनेमा पर भी दिखेगा।

मूल चित्र: Stills from mentioned movies, YouTube

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