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बाड़मेर की रूमा देवी ने कैसे 22,000 महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया

बाड़मेर की रूमा देवी ने अपने जैसी हज़ारों महिलाओं को अपने साथ जोड़ा और आज वे रूमा देवी राजस्थानी फैशन डिजाइनर के नाम से मशहूर हैं!

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बाड़मेर की रूमा देवी ने अपने जैसी हज़ारों महिलाओं को अपने साथ जोड़ा और आज वे रूमा देवी राजस्थानी फैशन डिजाइनर के नाम से मशहूर हैं!

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन, मा कर्मफलहेतुर्भु मा ते संगोत्वकमर्णि

गीता के इस श्लोक का अर्थ है कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो, क्योंकि तेरा धर्म कर्म करते रहना है।

कर्म अगर मेहनत और पूरी लगन से किया जाए तो फल अवश्य ही मीठा होता है। राजस्थान की रूमा देवी ने भी बस अपना कर्म किया। वो ये नहीं जानती थी कि उनकी कोशिश क्या रंग लेकर आएगी बस उन्हें इतना पता था कि इस काम से उन्हें आत्मसम्मान और आय मिलेगी।

रूमाल के कशीद से शुरुआत हुई और जर्मनी के फैशन रैंप तक पहुंच गई। इतनी कामयाबी मिली की बाड़मेर के एक सामान्य से परिवार की घरेलू महिला को 30 की उम्र में राष्ट्रपति भवन में देश का सर्वोच्च नारी शक्ति सम्मान प्राप्त हुआ।

रूमा देवी का परिचय (Ruma Devi Fashion Designer)

वो राजस्थान के बाड़मेर के छोटे से गांव रावतसर से हैं। 1988 में पैदा हुई रूमा एक सामान्य परिवार में पैदा हुईं। उनका जन्म एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। 4 वर्ष की छोटी सी उम्र में उन्होंने अपनी मां को खो दिया। रूमा की 7 बहनें हैं।

मां के जाने के बाद रुमा के पिता ने दूसरी शादी कर ली थी। रूमा अपने चाचा-चाची और दादी के साथ रहने लगी। स्कूल बहुत दूर था और लड़कियों का अकेला जाना मुश्किल था इसलिए आठवीं क्लास के बाद रूमा की पढ़ाई छूट गई। 

कौन जानता था कि दादी के सिखाए इस हुनर को रूमा देश-विदेश तक पहुंचाएगी

रूमा की दादी ने अपनी कढ़ाई-कसीदकारी का हुनर पोती को सिखाया। तब कौन जानता था कि दादी के सिखाए इस हुनर को रूमा देश-विदेश तक पहुंचाएगी।

17 साल की उम्र में रूमा की शादी हो गई थी और 2 साल बाद उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया लेकिन वह बच्चा कमज़ोर था और इलाज कराने के लिए पैसों की कमी के कारण 48 घंटे में ही रूमा ने अपनी संतान को खो दिया। अपनी औलाद के चले जाने से रूमा के जीवन में उथल-पुथल मच गई। इस घटना के बाद रूमा ने ठान लिया कि वो अपना जीवन केवल रसोई तक सीमित नहीं रखेगी और अपने साथ-साथ दूसरों की ज़िंदगी में भी उम्मीद की लौ वापस लेकर आएंगी।

घर के कामों को संभालते-संभालते दिन ढल जाता था। आर्थिक रूप से बहुत अच्छी स्थिति नहीं थी तो रूमा ने घर से ही कुछ काम करने का सोचा। दादी से सीखी कढ़ाई-बुनाई का फल अब मिलने वाला था।

कुछ दिन में घर से ही रूमाल पर कसीदकारी का काम मिल गया। बदले में थोड़े-बहुत जो पैसे मिलते थे रूमा वो जमा करने लगी। काम अच्छा चल रहा था तो रूमा ने सोचा क्यों ना मेरी तरह कुछ और ज़रूरतमंद औरतों की मदद की जाए। उन्होंने आस-पड़ोस की औरतों से बात करके उन्हें समझाने की कोशिश की।

पहला पड़ाव पार हुआ और साल 2008 में 10 औरतों ने मिलकर एक स्वयं सहायता समूह यानि विमेन सेल्फ हेल्प ग्रुप बना लिया।

पहले पड़ाव के बाद हुई रूमा देवी के सफलता की नई उड़ान                    

सभी औरतों ने अपनी बचत में से 100-100 रुपए दिए और सेकेंड हैंड सिलाई मशीन ख़रीद ली। उपकरण आने के बाद और भी काम आने लगा। रसोई में चूल्हा-चौंका और सारा काम निपटाने के बाद ये औरतें दिन में 2-3 दिन घंटे निकालकर कढ़ाई का कम करने लगीं।

शुरुआत में बैग, पेटीकोट और कई चीज़ें बनाने का काम आता था। उनके कमाए पैसों के कारण घर के हालात में पहले से सुधार होने लगा। लेकिन अभी और पड़ाव पार करने थे। काम बढ़ गया तो रूमा और उनकी साथी महिलाएं बाड़मेर के एक स्वयंसेवी संस्थान ग्रामीण विकास चेतना से जुड़ गईं।

फिर 2-3 महिलाएं इकट्ठी होकर गईं और संस्थान के सेक्रेटरी को अपने समूह के बारे में बताया। संस्थान से जुड़ते ही ऑर्डर की संख्या बढ़ने लगे। धीरे-धीरे रूमा की टीम बढ़ती गई और 200-300 महिलाएं एक साथ मिलकर काम करने लगीं।

बात निकली और दूर तलक गई। आस-पास के गांव-गलियारों की औरतों को भी महिला स्वयं सहायता समूह के बारे में पता चला। कई महिलाओं ने काम करने की इच्छा जताई। कुछ महिलाओं के घरवालों ने बाहर जाने पर आपत्ति जताई तो रूमा और उसकी साथियों ने उन्हें समझाया कि कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है बस घर से ही काम करना है।

रूमा देवी बढ़ती गईं और कारवां जुड़ता गया

रूमा देवी बढ़ती गईं और कारवां जुड़ता गया। उन्होंने अपने स्वयंसेवी संस्थान के साथ हज़ारों महिलाओं को जोड़ा और उन्हें हैंडीक्राफ्ट के ज़रिए रोज़गार दिया।

एक बार रुमा देवी को दिल्ली में एक फैशन शो देखने का मौका मिला जहां उन्हें ये पता चला कि  उनके बाड़मेर की कला अभी बहुत पीछे है। इसलिए उन्होंने इस बात से सीखते हुए कॉटन के कपड़ों और साड़ियों पर बाड़मेरी कला को उकेरना शुरू कर दिया।

पहली बार रूमा देवी ने राजस्थान हेरिटेज वीक जयपुर में फैशन शो किया लेकिन इस कला को कोई ख़ास रिस्पांस नहीं मिला। रूमा ने हार नहीं मानी और फिर से नए परिधानों पर काम करना शुरू कर दिया।

एक महीने बाद रूमा मार्केट ने बाड़मेर फैशन शो में भाग लिया और लोगों ने उनकी मेहनत को ख़ूब सराहा। इसके बाद उन्हें जयपुर में हुए मेगा शो में अपनी कला प्रदर्शित करने का मौका मिला जिसे 112 देशों में लाइव दिखाया गया।

रूमा देवी मॉडल के साथ ख़ुद रैंप पर पहुंची

बाड़मेर की कसीदकारी को उस दिन नई पहचान मिली। देश-विदेश के लोग इस कला से बहुत प्रभावित हुए और कुछ ही दिनों में बहुत सारे ऑर्डर मिलने लगे। जर्मनी में हुए एक फैशन शो के दौरान रूमा मॉडल के साथ ख़ुद रैंप पर पहुंची और वे अपने हाथ में सुई-धागा लेकर गईं। ऑन-द-स्पॉट रूमा ने अपनी कला सबके सामने दिखाई जिसे देखकर वहां मौजूद लोग अचंभित रह गए।

रूमा देवी सिर्फ एक नाम नहीं एक ताक़त है

रूमा देवी सिर्फ एक नाम नहीं वो ताक़त है जिसने हज़ारों को जीने की राह दिखाई है। 10 महिलाओं ने जिस सफ़र की शुरुआत की उनके साथ आज 22,000 महिलाएं खड़ी हैं। रूमा ने ख़ुद को और इन हज़ारों महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया है।

रूमा देवी की कोशिश को तब पहचान मिली जब साल 2018 में उन्हें नारी शक्ति अवॉर्ड से नवाज़ा गया। रूमा देवी ने अपनी पहचान गांव या प्रदेश तक ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर तक हासिल की है। आज इनके उत्पाद बाड़मेर, जोधपुर, जयपुर और दिल्ली से आगे बढ़ते हुए अब जर्मनी, श्रीलंका, थाईलैंड, मलेशिया और सिंगापुर तक पहुंच गए हैं।

अपनी इस कामयाबी पर रूमा देवी ने राष्ट्रपति सम्मान मिलने की घोषणा के बाद कहा था, “आज लग रहा है कि जो काम हम कर रहे थे उनके बदले कुछ हाथ में आया है। हमारी कला को ये सम्मान मिलना बेहद गर्व की बात है। ये सिर्फ मेरा नहीं सारी बहनों की बदौलत संभव हुआ है। आज लोगों को बाड़मेर के बारे में पता चल रहा है। हमारी दादी-नानी जब कढ़ाई का काम करती थीं तो बाहर के लोग उन्हें 2-3 रुपए देते थे। बाद में हमें पता चला की बाहर के लोग इस काम के लिए और भी पैसे देते हैं लेकिन बीच के एजेंट पैसे खा जाते हैं। इसलिए हमने ख़ुद को इंटरनेशनल मार्केट से डायरेक्ट जोड़ा ताकि कोई बहनों की मेहनत का पैसा ना खा सके।

हमारे साथ और बहनें भी जुड़ना चाहती हैं जिन्हें हम अलग से एक समूह बनाकर सीधा मार्केट से लिंक करवा देते हैं। फिर वो एग्ज़ीबिशन में जाती हैं और उन्हें ऑर्डर मिलने लगते हैं। कई महिलाएं ऐसी थी जिन्हें कभी ढंग का खाना नसीब नहीं होता था लेकिन आज इस रोज़गार से जुड़कर अपना और अपने परिवार को रोटी खिला रही हैं। कभी सोचा नहीं था कि हम इस मुक़ाम पर पहुंचेंगे।”

इंसान चाहे तो सब कुछ कर सकता है। अगर अपनी शक्ति को आप सही दिशा में लगाते हैं तो कोई भी मकाम हासिल किया जा सकता है।

रूमा देवी भले ही कम पढ़ी-लिखी थी लेकिन उन्हें अपने हुनर पर विश्वास था। उनका यही विश्वास उन्हें आगे ले गया। आज रूमा देवी और उनकी साथी महिलाओं का हुनर विश्व पटल पर रंग बिरंगे धागों से उज्ज्वल भविष्य गढ़ रहे हैं।

इमेज सोर्स: Facebook

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