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मैंने अपने आत्मसम्मान को मरने नहीं दिया…

उन्हें खेद था लेकिन मैं आंसू पोंछकर, आत्मविश्वास से दमक रही थी। मेरा मन हल्का हो गया था कि मैंने अपने आत्मसम्मान को मरने नहीं दिया।

उन्हें खेद था लेकिन मैं आंसू पोंछकर, आत्मविश्वास से दमक रही थी। मेरा मन हल्का हो गया था कि मैंने अपने आत्मसम्मान को मरने नहीं दिया।

बात उस समय की है, जब मेरे पास स्थायी काम नहीं था।

2013 में काम की तलाश में, मैं अपने भाई के पास दिल्ली चली गई। तो मेरे भाई ने अपने एक संपर्क के डॉक्टर जो पति-पत्नी दोनों डॉक्टर थे, के निजी क्लीनिक में ‘रेसीपनिस्ट के लिए जगह खाली है’ के बारे में बताया।

सुबह 8:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे तक, और शाम 5:00 से 8:00 तक, बस मरीजों की एंट्री करना, फोन रिसीव करना, डॉक्टर की हेल्प, पेशेंट को दवाई समझाना, उन्हें पैथोलॉजी लैब से संपर्क करवाना, पेशेंट को अपार्टमेंट देना, इत्यादि काम अच्छा था। मैं मन से काम कर रही थी, पर कुछ मेडिकल के शब्दों (भाषा) से अनजान थी।

मैं ज्यादातर काम समझ चुकी थी और ससमय काम कर लेती थी। जैसे, किसी पेशेंट को यदि ब्लड टेस्ट के लिए लिखा गया है, तो पैथोलॉजी वाले को जानकारी देना। उन्हें पेशेंट के टेस्ट और एड्रेस की जानकारी देना, ताकि लेब वाले उस पेशेंट का सैंपल ले सके। और डॉक्टर को इस प्रक्रिया से कुछ कमीशन मिलता था।

मेरे काम किए हुए छः दिन हो गए थे। एक शाम  एक पेशेंट के पर्ची पर कुछ टेस्ट लिखा गया, तो मैंने लैब वाले को फोन कर टेस्ट और पेशेंट की जानकारी दे दी। आज रात काम खत्म कर सारे पेशेंट का रिकॉर्ड, जानकारी  डॉक्टर को बता मैं 8:00 बजे घर चली गई।

सुबह 8:00 बजे जब मैं क्लीनिक पहुंची तो डॉक्टर ने पूछा, “एग्जामिनेशन के लिए फोन कर दिया था?” 

मैं शायद ठीक से समझी नहीं “एग्जामिनेशन” शब्द का अर्थ, तो दोबारा पूछने से पहले मैंने कहा, “नहीं, अभी नहीं।”

तब तक डॉक्टर ने खुद लैब को फोन किया। वहाँ लैब वालों ने बताया कि उन्हें इसकी जानकारी है।

बस इतनी सी बात हुयी थी कि उन डॉक्टर ने फोन रखते ही मुझे ‘झूठी, धोखेबाज लैब वाले से मिलकर कमीशन लेना चाहती है’, इत्यादि बोल दिया।

वो ऐसी बातें बोलकर मुझे खरी-खोटी सुनाने लगे। मैं कुछ देर तक रोती रही।

खुद को जब थोड़ा संभाला तो मैं बोली, “सर आपका प्रश्न मैं समझ ना सकी। लेकिन जैसा आप समझ रहे हैं, ऐसी कोई बात नहीं है।”

पर उनका रुख मेरे प्रति अविश्वासनीय ही रहा। मेरा काम में भी मन नहीं लग रहा था।

जैसे-तैसे मैंने उस दिन समय को गुजारा और जब मैं ड्यूटी ख़त्म कर के घर आई तो मैंने दोबारा उस क्लिनिक पर काम ना करने का प्रण लिया।

शाम साढ़े पांच के करीब मेरे भाई के पास डॉक्टर का फोन आया। तो भाई ने कहा, “वो अब नहीं आना चाहती है।”

डॉक्टर के शब्द मैं फोन पर सुन रही थी, उन्हें खेद था लेकिन मैं आंसू पोंछकर, आत्मविश्वास से दमक रही थी। मेरा मन हल्का हो गया था कि मैंने अपने आत्मसम्मान को मरने नहीं दिया।

मूल चित्र : Still from Short Film Receptionist, Black Sheep/YouTube

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